Thursday, August 22, 2013

......... जय श्री योगीश्वर कृष्ण .............


 ......... योग बुद्धि की प्रशंसा .........
......... जय श्री योगीश्वर कृष्ण .............
..... बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
..... तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलं|| ..... गीता अध्याय २| श्लोक ५० ||
..... जो बुद्धियोग चित्त की समता से कर्म करता है , वह अपने पुण्य - पाप दोनों को इसी लोक में छोड़ देता है . इसलिए तू योग की चेष्टा कर ; क्योंकि कामों के बीच में ' योग' अत्यंत बलवान है |
..... जो सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखकर कर्म करता है , उसका चित्त समत्व बुद्धि से शुद्ध  हो जाता है . चित्त के शुद्ध होने पर ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है . ज्ञान से पुण्य-पाप इसी दुनिया में छूट जाते हैं . तात्पर्य यह है कि , चित्त की समता वाला अपने योगबल से पुण्य-पाप दोनों से इसी लोक में पीछा छुडा लेता है . कर्मों के बीच में योग ही करामाती है . क्योंकि जो कर्म बंधन-स्वरुप है , वही जब चित्त की समता -योगबुद्धि से किये जाते हैं, तब वह बंधन छुडाने वाले हो जाते हैं. यानी जो कर्म मनुष्य को संसार-बंधन में फंसाते हैं , वे ही कर्मयोग के बल से , बलवान होकर , मनुष्य के हृदय में ज्ञान जागृत करके , संसार-बंधन से छुडा देते हैं ...इसलिए अर्जुन तू योगी हो ........  
..... खुलासा यह है कि सुख -दुःख और सब प्रकार की लाभ हानि को एक समान समझने वाला मनुष्य , क्या इस लोक और क्या परलोक में , कभी पाप-पुण्य का भागी नहीं होता ; वह जिस प्रकार अच्छे कर्म कर पुण्य की आशा छोड़ देता है ; उसी प्रकार यदि उसके द्वारा कोई बुरा कार्य हो जाय , तो उसका पाप उसे नहीं लगता . इसलिए तुम सुख -दुःख का विचार छोड़ कर , दोनों को एक सा समझो . सुख-दुःख , लाभ-हानि , जय -पराजय आदि को सामान समझना ही 'योग' है . जो इनको समान समझता हुआ कर्म करता है , उसके किये हुए पुण्य-पाप इसी लोक में छूट जाते हैं .

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