Friday, July 12, 2013

' पूर्ण ब्रह्म ' की सोलह कलाएँ '

..... कहते हैं कि ' पूर्ण ब्रह्म ' की सोलह कलाएँ हैं | उन सोलह कलाओं के नाम इस प्रकार हैं....
..... १- भद्र - भजनीयता.
..... २- समाप्ति - समस्त गुणों की पराकाष्ठा .
..... ३- आभूति - जड़-चेतनात्मक जगत का प्रादुर्भाव .
..... ४- सम्भूति - संरक्षा .
..... ५- भूतं - संहार .
..... ६- सर्वं - परिपूर्णता.
..... ७- रूप- इन्द्रिय-जन्य अनुभूति का आधार .
..... ८- अपरिमित - मन-वाणी -बुद्धि से अगम्य .
..... ९- श्री - आश्रयणीय गुणों का एकमात्र केंद्र .
..... १०- यश- समस्त प्रशंसाओं का एकमात्र पात्र .
..... ११- नाम - समस्त नामों का एकमात्र आधार .
..... १२- उग्र- समस्त चेष्टाओं का एकमात्र केंद्र .
..... १३- सजाता - समस्त शक्तियों का एकमात्र सहज प्रस्थान .
..... १४- पय: - पञ्च महाभूतों के कलात्मक सम्मिश्रण का आवास .
..... १५- महीया - महत्तमा माया का एकमात्र आधार .
..... १६- रस- समाधि-लब्ध आनंदोद्रेक का एकमात्र आवास .
..... यह पूर्ण ब्रह्म की सोलह कलाएँ कही जाती हैं .......

Monday, July 8, 2013

|| शांति पाठ ||

 
 .............................|| शांति पाठ ||...........................
..... ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्त्तु | सह वीर्यम करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै | ..... ॐ शान्ति: ! ॐ शान्ति: !! ॐ शान्ति: !!!
.....व्याख्या - हे परमात्मन् ! आप हम गुरु शिष्य दोनों की साथ साथ सब प्रकार से रक्षा करें , हम दोनों का आप साथ साथ समुचित रूप से पालन पोषण करें , हम दोनों साथ ही साथ सब प्रकार से बल प्राप्त करें , हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजपूर्ण हो - कहीं किसी से हम विद्या में परास्त न हों और हम दोनों जीवन भर परस्पर स्नेह-सूत्र से बंधे रहें , हमारे अंदर परस्पर या अन्य किसी से कभी द्वेष न हो | हे परमात्मन् ! तीनों तापों की निवृत्ति हो |
..................ॐ शान्ति: ! ॐ शान्ति: !! ॐ शान्ति: !!! ..................
..... नोट - यह शान्ति पाठ है , इसका पाठ नित्य प्रात: एवं सायं करने से आत्मबल, तेज बल , और मानसिक बल की वृद्धि होती है | दोनों वेला में भोजन के पूर्व भी इसका पाठ करने से शुभता में वृद्धि होती है |

... व्रतादि निर्णय स्वयं कैसे करें ...

.................. व्रतादि निर्णय स्वयं कैसे करें ..................
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..... मेरे आत्मीय मित्रों ! यथोचित अभिवादन , आम जनमानस , को व्रतादि का निर्णय करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पडता है , यहाँ तक कि पंडित गण एवं ज्योतिषी जन भी कभी कभी असमंजस की स्थिति में पड़ जाते हैं . अत: यहाँ दी गयी विधि का अनुशरण करके आप लोग स्वयं व्रतादि का निर्णय कर सकते हैं . बहुत आसान है.
..... सबसे पहले तो स्मार्त और वैष्णव का अंतर समझ लें , स्मार्त का मतलब है " गृहस्थ " , अर्थात स्मृति के आदेशानुसार अपने समस्त कर्मकांड करने वालों को ' स्मार्त ' कहा जाता है . और वैष्णव का मतलब है वैष्णव सम्प्रदाय के मतावलम्बी, अधिकतर लोग वैष्णव का मतलब सीधे सीधे शाकाहारी (सनातनी ) हिन्दू से लगा लेते हैं , जबकि ऐसा नहीं है यह एक सम्प्रदाय है जिसमें रामानुज संत आदि आते है .
..... ' सर्व कालकृतं मन्ये ' इस सूत्र के अनुसार एक बात जान लें कि , सूर्य ' ब्रह्माण्ड ' की प्राण शक्ति का केंद्र है , और चन्द्रमा ' ब्रह्माण्ड ' की ' मन: शक्ति का सर्वस्व ' . इन दोनों ( सूर्य-चन्द्रमा) भौतिक पिंडों की विभिन्न कक्षाओं में अवस्थिति ही ' तिथि ' शब्द से जानी जाती है . जैसे अमावस्या तिथि को ' चंद्र-पिण्ड' सूर्य की कक्षा में विलीन रहता है , और पूर्णिमा को यह दोनों पिण्ड क्षितिज पर आमने सामने उदित दिखते हुए समान रेखा पर अवस्थित रहते हैं. इसी प्रकार दोनों पक्षों की अष्टमी तिथि को ये अर्ध सम रेखा पर ही अवस्थित रहते हैं. इससे यह सिद्ध होता है कि , सूर्य - चंद्र का आन्तरिक तारतम्य ही 'तिथि' है , और स्थूल तथा सूक्ष्म जगत् पर तिथिजन्य प्रभाव का सन्निपात ही , तत्तत् तिथियों के अधिष्ठाताओं का, उन पर आधिपत्य है , जबकि स्थूल जगत पर भी उक्त पिंडों की अवस्थिति का प्रभाव तत्तत ऋतुओं के रूप में , वर्षा , ग्रीष्म , शीत , एवं इनके गुण , आंधी , तूफ़ान . भू-कम्प , समुद्रीय ज्वार-भाटा , सुनामी , डीन, रीटा , ओलापात , ज्वालामुखी , बाढ़ , मनोरोग , दावानल , और दिग्दाह के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देता है. इसके बावजूद सूक्ष्म जगत् ( दृश्य संसार ) पर उनकी अवस्थिति के प्रभाव को शंका की दृष्टि से देखना पदार्थ विज्ञान से अनभिज्ञ लोगों का ही काम हो सकता है.
..... सनातन ( हिंदुओं के ) शास्त्रों में काल (समय) को प्रधान कारण माना गया है . कोई अनभिज्ञ भले ही 'काल' को निष्क्रिय मान कर उसकी कारणता में संदेह करे , परन्तु वास्तव 'काल' ही - " अस्ति , जायते , वर्द्धते , विपरिणमते , अपक्षीयते और विनश्यति " इन छः प्रकार के मूल विकारों का प्रधान / प्रमुख कारण है . 'काल' का मुख्य उद्भावक 'सूर्य' है और उसके सहकारी उद्भावक अन्य ग्रह-पिण्ड हैं , जिनमें पृथ्वी के अति निकटवर्ती होने के कारण चंद्र-पिण्ड का ' पार्थिव निर्माण काल ' में सर्वोपरि सहयोग है .
..... इसी कारण से सनातनियों (हिन्दुवों) के सभी सकाम ( जो व्रतादि किसी मनोकामना की पूर्ति आदि के लिए किये जाते हैं वे 'सकाम' , और जिन व्रतादि में , 'मुझे कोई कामना नहीं है , मैं तो यूँ ही कर रहा हूँ उसे 'निष्काम /नि:काम ' व्रत कहते हैं ) निर्णय चांद्र-तिथियों से करने का स्पष्ट आदेश हमारे धर्म-शास्त्रों / स्मृतियों में मिलता है .
..... निष्कर्ष - अब इसका सूत्र भी जान लीजिए , चिंता हरण जंत्री , चिंता हरण पंचांग , ठाकुर प्रसाद कैलेण्डर , श्री विश्वनाथ पंचांग, या अन्य जो भी पंचांग हो उसमें सर्व साधारण की सुविधा के लिए वहाँ 'स्मार्त या वैष्णव ' शब्द से उल्लेख किया जाता है . कुल मतलब यह है कि , जहां 'स्मार्त ' लिखा हो वह व्रतादि ही (गृहस्थों- बाल बच्चेदार ) के करने योग्य होता है . जहां वैष्णव का उल्लेख हो वहाँ , दंडी सन्यासी , मठ-मंदिर , महाभागवत , निम्बार्क , चक्रांकित महाभागवत , आश्रम , सरस्वती , आदि के करने योग्य होता है . इनके नाना प्रकार के अखाड़े हैं , अपने अपने रीति-रिवाज हैं , अपनी परम्पराएं हैं .
..... गृहस्थों को ' स्मार्त निर्णय ' ही ग्रहण करना चाहिए , इस प्रकार आप सभी व्रतों का निर्णय कर सकते हैं...

Tuesday, July 2, 2013

.... मंत्र जप रहस्य ....

............................. मंत्र जप रहस्य ............................ ..... जप मन्त्रों का होता है , और मन्त्रों का निर्माण वर्णों की संघटना से होता है . वर्ण का दूसरा नाम है ' अक्षर ' अर्थात जिसका क्षरण न हो , अर्थात अक्षर अनश्वर हैं. वर्ण रूप से ध्वनि हैं. ध्वनि सुनाई भी देती है और नहीं भी सुनाई देती है, क्योंकि मानव के कर्ण यंत्रों की एक सीमा है . ध्वनि एक खास सीमा तक ही सुनाई देती है , जब उस अवस्था से ध्वनि का कंपन कम हो हो जाता है तब वह नहीं सुनाई देती है.
..... अब प्रश्न है कि - ध्वनि उत्पन्न होती है या व्यापक रूप से वह विद्यमान है. उदाहरण किसी घंटे पर चोट करने पर ध्वनि प्रकट होती है, और धीरे धीरे वह कम होती जाती है , और एक बिंदु पर आकर वह इतनी कम हो जाती है कि , लगता है कि वह समाप्त हो गयी , तो क्या घंटे पर चोट देने के पूर्व वह नहीं थी ? और चोट देने के उपरान्त चंद क्षणों में ही वह समाप्त हो गयी, क्या उसका जीवन कुछ क्षणों का ही था ?
..... बात यह है कि अनाहत रूप में ध्वनि सर्वत्र व्याप्त है , चोट देने से केवल कुछ स्पंदन बढ़ जाने के कारण हमारे प्रकृत कानों के सुनने के योग्य बनी थी .
..... इसीलिये आगमशास्त्र में एवं अन्य दर्शनों में भी ध्वनि को अनश्वर माना गया है , एवं शब्द को आकाशात्मक कहा गया है . आकाश की तन्मात्रा शब्द को माना गया है, अर्थात ध्वनि स्वाभाविक रूप से अनाहत अवस्था में विद्यमान है , और इसीलिये शब्द को ब्रह्म माना गया है .
..... ध्वनि ( शब्द ) की चार अवस्थाएँ होती हैं, १- परा , २- पश्यन्ति , ३- मध्यमा , ४- वैखरी .
..... परावस्था वह है जहां ध्वनि मूल रूप में अनाहत अवस्था में विद्यमान है . यही अवस्था समग्र शक्तियों से युक्त है , और सृष्टि में समर्थ है . पश्यन्ति वह अवस्था है जहां ध्वनि से सृष्टि शुरू होती है और साधक उसे देख सकता है . मध्यम अवस्था वह है जहां पश्यन्ति से निकल कर शब्द बन जाते हैं, और उनका अनुभव सहज रूप से किया जा सकता है . वैखरी वह अवस्था है जब शब्द प्रकट हो जाता है और उसे कोई भी सुन सकता है . मानव को वैखरी अवस्था का बोध है जो ध्वनि का सबसे स्थूल रूप है वैखरी से यात्रा करके उत्तरोत्तर विकास करते हुए परा तक की यात्रा की जाती है , जहां साधक को सकल ज्ञान उपलब्ध हो जाते हैं.
..... वर्णों के एक विशेष प्रकार के संघटनों से एक विशेष रूप निर्मित होता है , अथवा मन्त्रों की ध्वनि तरंगों के माध्यम से एक विशेष अवस्था में पहुंचा जा सकता है.
.... वैखरी से जब विशेष यात्रा आरम्भ करते हैं , तो जितनी सूक्ष्मता की ओर बढ़ना संभव है उतना ही ध्वनि तरंग अपना प्रभाव देने में समर्थ होती हैं, अर्थात मंत्र का प्रभाव अनुभव होने लगता है. इसलिए साधना काल में वाचिक की अपेक्षा मानसिक जप श्रेष्ठ माना जाता है . जप सदैव मध्यमा भूमि ( अवस्था ) में होता है , और उसका विकास पश्यन्ति की ओर होना चाहिए . वैखरी का उपयोग केवल अभ्यास काल में होता है . जप के विकसित अवस्था में जप का अभ्यास भी बंद हो जाता है . जप निरंतर अनायास होता रहता है , और जब, जप अनायास होने लगे तब मंत्र की ध्वनि तरंगें संतुलित हो जाती हैं और मंत्र के अनुसार फल देने में समर्थ होती है. यही मंत्र प्रभाव का वास्तविक रहस्य है ...जय महाशक्ति !....