............................. मंत्र जप रहस्य ............................
..... जप मन्त्रों का होता है , और मन्त्रों का निर्माण वर्णों की संघटना
से होता है . वर्ण का दूसरा नाम है ' अक्षर ' अर्थात जिसका क्षरण न हो ,
अर्थात अक्षर अनश्वर हैं. वर्ण रूप से ध्वनि हैं. ध्वनि सुनाई भी देती है
और नहीं भी सुनाई देती है, क्योंकि मानव के कर्ण यंत्रों की एक सीमा है .
ध्वनि एक खास सीमा तक ही सुनाई देती है , जब उस अवस्था से ध्वनि का कंपन कम
हो हो जाता है तब वह नहीं सुनाई देती है.
..... अब प्रश्न है कि -
ध्वनि उत्पन्न होती है या व्यापक रूप से वह विद्यमान है. उदाहरण किसी घंटे
पर चोट करने पर ध्वनि प्रकट होती है, और धीरे धीरे वह कम होती जाती है , और
एक बिंदु पर आकर वह इतनी कम हो जाती है कि , लगता है कि वह समाप्त हो गयी ,
तो क्या घंटे पर चोट देने के पूर्व वह नहीं थी ? और चोट देने के उपरान्त
चंद क्षणों में ही वह समाप्त हो गयी, क्या उसका जीवन कुछ क्षणों का ही था ?
..... बात यह है कि अनाहत रूप में ध्वनि सर्वत्र व्याप्त है , चोट देने से केवल कुछ स्पंदन बढ़ जाने के कारण हमारे प्रकृत कानों के सुनने के योग्य बनी थी .
..... इसीलिये आगमशास्त्र में एवं अन्य दर्शनों में भी ध्वनि को अनश्वर
माना गया है , एवं शब्द को आकाशात्मक कहा गया है . आकाश की तन्मात्रा शब्द
को माना गया है, अर्थात ध्वनि स्वाभाविक रूप से अनाहत अवस्था में विद्यमान
है , और इसीलिये शब्द को ब्रह्म माना गया है .
..... ध्वनि ( शब्द ) की चार अवस्थाएँ होती हैं, १- परा , २- पश्यन्ति , ३- मध्यमा , ४- वैखरी .
..... परावस्था वह है जहां ध्वनि मूल रूप में अनाहत अवस्था में विद्यमान
है . यही अवस्था समग्र शक्तियों से युक्त है , और सृष्टि में समर्थ है .
पश्यन्ति वह अवस्था है जहां ध्वनि से सृष्टि शुरू होती है और साधक उसे देख
सकता है . मध्यम अवस्था वह है जहां पश्यन्ति से निकल कर शब्द बन जाते हैं,
और उनका अनुभव सहज रूप से किया जा सकता है . वैखरी वह अवस्था है जब शब्द
प्रकट हो जाता है और उसे कोई भी सुन सकता है . मानव को वैखरी अवस्था का बोध
है जो ध्वनि का सबसे स्थूल रूप है वैखरी से यात्रा करके उत्तरोत्तर विकास
करते हुए परा तक की यात्रा की जाती है , जहां साधक को सकल ज्ञान उपलब्ध हो
जाते हैं.
..... वर्णों के एक विशेष प्रकार के संघटनों से एक विशेष रूप
निर्मित होता है , अथवा मन्त्रों की ध्वनि तरंगों के माध्यम से एक विशेष
अवस्था में पहुंचा जा सकता है.
.... वैखरी से जब विशेष यात्रा आरम्भ
करते हैं , तो जितनी सूक्ष्मता की ओर बढ़ना संभव है उतना ही ध्वनि तरंग अपना
प्रभाव देने में समर्थ होती हैं, अर्थात मंत्र का प्रभाव अनुभव होने लगता
है. इसलिए साधना काल में वाचिक की अपेक्षा मानसिक जप श्रेष्ठ माना जाता है .
जप सदैव मध्यमा भूमि ( अवस्था ) में होता है , और उसका विकास पश्यन्ति की
ओर होना चाहिए . वैखरी का उपयोग केवल अभ्यास काल में होता है . जप के
विकसित अवस्था में जप का अभ्यास भी बंद हो जाता है . जप निरंतर अनायास होता
रहता है , और जब, जप अनायास होने लगे तब मंत्र की ध्वनि तरंगें संतुलित हो
जाती हैं और मंत्र के अनुसार फल देने में समर्थ होती है. यही मंत्र प्रभाव
का वास्तविक रहस्य है ...जय महाशक्ति !....
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