प्रत्येक शरीर में आत्मा तीन रूप में व्याप्त है-1. विज्ञानात्मा, 2. महानात्मा, 3. भूतात्मा। विज्ञानात्मा (उसे कहते हैं जो) गर्भाधान से पहले स्त्री पुरूष में सम्भोग की इच्छा प्रकट करता है। वह रोदसी मण्डल से आता है। रोदसी मण्डल पृथ्वी से 27 हजार मील की दूरी पर स्थित है। महानात्मा चन्द्रलोक से पुरूष के शरीर में 28 अंशात्मक रेतस् बनकर आता है, उसी 28 अंश रेतस् से पुरूष पुत्र पैदा करता है। भूतात्मा माता द्वारा खाये गये अन्न के रस से बने वायु द्वारा गर्भ पिण्ड में प्रवेश करता है। उसे वायु में अहंकार का ज्ञान होता है। उसी को प्रज्ञानात्मा तथा भूतात्मा कहते हैं। यह भूतात्मा पृथ्वी के सिवा अन्य किसी लोक में नहीं जा सकता। मृत प्राणी का महानात्मा स्वजातीय चन्द्रलोक में चला जाता है। चन्द्रलोक में उस महानात्मा से 28 अंश रेतस् माँगा जाता है; क्योंकि चंद्रलोक से 28 अंश लेकर ही वह उत्पन्न हुआ था। इसी 28 अंश रेतस् को पितृऋण कहते हैं। 28 अंश रेतस् के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने पिण्ड तथा जल आदि के दान को ही श्राद्ध कहते है। इस श्राद्ध नामक मार्ग का सम्बन्ध मध्यान्हकाल में पृथ्वी से होता है। इसीलिए मध्यान्हकाल में श्राद्ध करने का विधान है। पृथ्वी पर कोई भी वस्तु सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल के सम्पर्क से ही बनती है। संसार में सोम सम्बन्धी वस्तु विशेषतः चावल और यव हैं। यव में मेधा की अधिकता है। धान और यव में रेतस् (सोम) का अंश विशेष रूप में रहता है। आश्विन कृृष्णपक्ष (पितृ पक्ष) में यदि चावल तथा यव का पिण्डदान किया जाय तो चन्द्रमंडल को 28 अंश रेतस् पहुँच जाता है। पितर इसी चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते हैं; विदूर्ध्वलोके पितरो वसन्तः स्वाधः सुधादीधित मामनन्ति। (गोलाध्याय)।
आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। श्राद्ध की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाय वही श्राद्ध है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यायित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से रेतस् का अंश लेकर वह चन्द्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है। इसीलिये इसको पितृपक्ष कहते हैं। अन्य दिनों में जो श्राद्ध तथा तर्पण किया जाता है, उसका सम्बन्ध सूर्य की उस सुषुम्ना नाड़ी से रहता है, जिसके द्वारा श्रद्धारश्मि मध्यान्हकाल में पृथ्वी पर आती रहती है और यहाँ से तत्तत् पितर का भाग ले जाती है; परन्तु पितृपक्ष में जितने पितृप्राण चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते है, वे स्वतः चन्द्रपिंड की परिवर्तित स्थिति के कारण पृथ्वी पर व्याप्त रहते हैं। इसी कारण पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध का इतना अधिक माहात्म्य है।
धर्मशास्त्र का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। उन्हें गन्धर्वलोक प्राप्त होने पर भोग्यरूप में, पशुयोनि में तृणरूप में, सर्पयोनि में वायु रूप में, यक्षयोनि में पेयरूप में, दानवयोनि में मांसरूप में, प्रेतयोनि में रूधिररूप में, और मनुष्यरूप में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।
जब पितर यह सुनते हैं कि श्राद्धकाल उपस्थित हो गया है तो वह एक दूसरे का स्मरण करते हुए मनोमय रूप से श्राद्धस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तो पितर अपने पुत्रों पौत्रों के यहाँ आते हैं। विशेषतः आश्विन अमावस्या के दिन वह दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तो वह शाप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प, फल और जल तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्ध नहीं होना चाहिए। कन्या गते सवितरि पितरो यान्ति वै सुतान्। अमावस्या दिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिताः। श्राद्धाभावे स्वभवनं शापं दत्वा व्रजन्ति ते।।
मुख्यतः श्राद्ध दो प्रकार के है। पहला एकोद्दिष्ट और दूसरा पार्वण; लेकिन बाद में चार श्राद्धों को मुख्यता दी गई। इनमें पार्वण, एकोद्दिष्ट, वृद्धि और सपिण्डीकरण आते हैं। आजकल यही चार श्राद्ध समाज में प्रचलित हैं। वृद्धिश्राद्धका मतलब नान्दीमुख श्राद्ध है। श्राद्धों की पूरी संख्या बारह है- नित्यं नैमित्तिकं काम्य वृद्धिश्राद्ध सपिंडनम्। पार्वण चेति विज्ञेयं गोष्ठ्यां शुद्धयर्थष्टमम्।। कर्मागं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतमृ। यात्रा स्वेकादर्श प्रोक्तं पुष्टयर्थ द्वादशं स्मृतम्।।
इनमें नित्यश्राद्ध, तर्पण और पञ्चमहायज्ञ आदि के रूप में, प्रतिदिन किया जाता है। नैमित्तिक श्राद्ध का ही नाम एकोद्दिष्ट है। यह किसी एक व्यक्ति के लिए किया जाता है। मृत्यु के बाद यही श्राद्ध होता है। प्रतिवर्ष मृत्युतिथि पर भी एकोद्दिष्ट ही किया जाता है। काम्य श्राद्ध अभिप्रेतार्थ सिद्धर्य्थ अर्थात् किसी कामना की पूर्ति की इच्छा के लिए किया जाता है। वृद्धिश्राद्ध पुत्र जन्म आदि के अवसर पर किया जाता है। इसी का नाम नान्दी श्राद्ध है। सपिण्डनश्राद्ध मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडषी के बाद किया जाता है। इसके बाद मृत व्यक्ति को पितरों के साथ मिलाया जाता है।
प्रेतश्राद्ध में जो पिण्डदान किया जाता है, उस पिण्ड को पितरों को दिये पिण्ड में मिला दिया जाता है। पार्वण श्राद्ध प्रतिवर्ष आश्विन कृष्णपक्ष में मृत्यु तिथि और अमावस्या के दिन किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी पर्वों पर भी यह श्राद्ध किया जाता था। गोष्ठी श्राद्ध विद्वानों को सुखी समृद्ध बनाने के उद्देश्य से किया जाता था। इससे पितरों की तृप्ति होना स्वाभाविक है। शुद्धि श्राद्ध शारीरिक मानसिक और अशौचादि अशुद्धि के निवारण के लिए किया जाता है। कर्मा¯ श्राद्ध सोमयाग, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन आदि के अवसर पर किया जाता था। दैविक श्राद्ध देवताओं की प्रसन्नता के लिए किया जाता था। यात्राश्राद्ध यात्रा काल में किया जाता था। पुष्टिश्राद्ध धन-धान्य समृद्धि की इच्छा से किया जाता था।
हमारे धर्मशास्त्रों में श्राद्ध के सम्बन्ध में इतने विस्तार से विचार किया गया है कि इसके सामने अन्य समस्त धार्मिक कृत्य गौण से लगने लगते हैं। श्राद्ध के छोटे से छोटे कृत्य के संबंध में इतनी सूक्ष्म मीमांसा और समीक्षा की है कि विचारशील व्यक्ति चमत्कृत हो उठते हैं। मनोविज्ञान के अध्येताओं के लिए श्राद्धीय कर्मकाण्ड विवेचन एवं अध्ययन की सामग्री है। शास्त्रकारों ने अपने पांडित्य और मनोविज्ञान का यत्परोनास्ति रूप प्रदर्शित किया है। नया मकान बनवाने पर, नया कूप तैयार करने पर, समृद्धि प्राप्त होने पर, देश में कोई नयी असाधारण घटना होने पर, शत्रुओं पर विजय प्राप्त होने पर, पुत्र जन्म, यज्ञोपवीत, विवाह, कन्या-दान आदि के अवसरों पर, जब परिवार के सब लोग उत्सव मना रहे हों, सबका मन उल्लासित हो, उस समय अपने स्वर्गीय बन्धुओं की स्मृति आना नितांत स्वाभाविक है। यह इच्छा भी उस समय अवश्य जागृत होती है कि यदि इस अवसर पर माता रहतीं, पिता रहते, बड़े भाई रहते, दूसरे आत्मीय रहते तो उनको कितना आनन्द प्राप्त होता। जो हमारे सुख में अपनी अन्तरात्मा से सुखी होते थे, दुःख में दुखी होते थे, उनकी स्मृति मिटाये मिट नहीं सकती। अतः यह इच्छा स्वाभाविक है कि वह अज्ञात लोक के वासी भी हमारे उल्लास में, आनन्दोत्सव में सम्मिलित हों; शरीर से न सही, आत्मा से हमारे साथ रहें; अतः उनके प्रति श्रद्धानत होना और श्रद्धानिवेदित करना स्वाभाविक हो जाता है। उनका शास्त्रीय मंत्रों द्वारा मानसिक आवाहन पूजन ही श्राद्ध है।
इस मनोवैज्ञानिक सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मन की भावना बड़ी प्रबल होती है। श्रद्धाभिभूत मन के सामने स्वर्गीय आत्मा सजीव और साकार हो उठती है। श्राद्ध में माता-पिता आदि के रूप का ध्यान करना आवश्यक कर्तव्य निर्धारित किया गया है। अनेक श्रद्धालु लोगों का यह अनुभव है कि श्राद्ध के समय माता-पिता, पिता या किसी अन्य स्नेही की झलक दिखाई दी। भगवान् राम ने जब अपने पिता का श्राद्ध किया तो पिण्ड दान के बाद भगवती सीता को दशरथ आदि पितरों का दर्शन कराया था। यह निरी कपोल कल्पना नहीं है। आज का मनोविज्ञान भी श्राद्ध के इस सत्य के निकट पहुँचता जा रहा है।
श्राद्ध के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है। उनपर भी शास्त्रों में बहुत विचार किया गया है। कौन वस्तु कैसी हो, कहाँ से ली जाय, कब ली जाय। भोजन सामग्री कैसी हो, किन पात्रों में बनायी जाय, कैसे बनायी जाय। फल, साग, तरकारी आदि में भी कुछ अश्राद्धीय ठहरा दी गयी है। प्रत्येक वस्तु की शुद्धता और स्तर निर्धारित कर दिया है। पुष्प और चन्दन जो निर्धारित है, उन्हीं का उपयोग हो सकता है।
इसके अलावा श्राद्ध में कैसे ब्राह्मणों को आमन्त्रित किया जाय, किस प्रकार किया जाय, कब किया जाय और निमन्त्रित ब्राह्मण निमन्त्रण के बाद किस तरह का आचरण करें, भोजन किस प्रकार करें, आदि सभी बातें विस्तार पूर्वक बतलायी गयी हैं। ब्राह्मणों को, उत्तम, मध्यम और अधम तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है। निषिद्ध ब्राह्मणों की सूची बड़ी लम्बी है। शास्त्र का कठोर आदेश है कि अन्य किसी धार्मिक कार्य में ब्राह्मणों की परीक्षा न की जाय, पर श्राद्ध में जिन ब्राह्मणों को आमन्त्रित करना हो, उनकी परीक्षा यत्नपूर्वक की जाय और परीक्षा आमन्त्रित करने के पूर्व कर ली जाय, बाद में नहीं - न ब्राह्मणं परीक्षेत देवै कर्मणि धर्मवित्। पित्र्ये कर्मणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्नतः।
श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि पर कभी न किया जाय। जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व न हो, सार्वजनिक हो, ऐसी भूमि पर श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्रीय निर्देश है कि दूसरे के घर में जो श्राद्ध किया जाता है, उसमें श्राद्ध करने वाले पितरों को कुछ नहीं मिलता। गृह-स्वामी के पितर बलात् सब छीन लेते हैं - परकीय गृहे यस्तु स्वात्पितृस्तर्पयेद्यदि। तद्भूमि स्वामिनस्तस्य हरन्ति पितरोबलात्।।
यह भी कहा गया है कि दूसरे के प्रदेश में यदि श्राद्ध किया जाय तो उस प्रदेश के स्वामी के पितर श्राद्धकर्म का विनाश कर देते हैं- परकीय प्रदेशेषु पितृणां निवषयेत्तुयः। तद्भूमि स्वामि पितृभिः श्राद्धकर्म विहन्यते।।
इसीलिए तीर्थ में किये गये श्राद्ध से भी आठगुना पुण्यप्रद श्राद्ध अपने घर में करने से होता है-तीर्थादष्टगृणं पुण्यं स्वगृहे ददतः शुभे। यदि किसी विवशता के कारण दूसरे के गृह अथवा भूमि पर श्राद्ध करना ही पड़े तो भूमि का मूल्य अथवा किराया पहले उसके स्वामी को दे दिया जाय।
मृतक की अन्त्येष्टि और श्राद्ध की जो व्यवस्था इस समय प्रचलित है, वह हमारे वेदों में वर्णित है। गृह्यसूत्रों में पितृयज्ञ अथवा पितृश्राद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। आश्वलायन गृह्यसूत्र की सप्तमी और अष्टमी कण्डिका में विस्तार पूर्वक श्राद्ध विधि वर्णित की गयी है; वह पठनीय और मननीय है। अन्त्येष्टि विधि का वर्णन भी इसमें उपलब्ध है। चिता प्रज्ज्वलित होने पर ऋग्वेद का यह मन्त्र पढ़ा जाता था - प्रेहि प्रेहि पथिभिः पूर्वेभिः अर्थात् जिस मार्ग से पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से तुम भी जाओ। मूलतः वेदों में भी श्राद्ध और पिण्डदान का उल्लेख किया गया है। श्राद्ध में जो मंत्र पढ़े जाते हैं, उनमें से कुछ ये हैं अत्र पितरो मादमध्वं यथाभागमा वृषायध्वम। इस पितृयज्ञ में पितृगण हृष्ट हो और अंशानुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करें। नम वः पितरो रसाय। नमो वः पितरो शोषाय। पितरों को नमस्कार ! बसन्त ऋतु का उदय होने पर समस्त पदार्थ रसवान हों। तुम्हारी कृपा से देश में सुन्दर बसन्त ऋतु प्राप्त हो। पितरों को नमस्कार ! ग्रीष्म ऋतु आने पर सर्व पदार्थ शुष्क हों। देश में ग्रीष्म ऋतु भलीभाँति व्याप्त हो।
इसी प्रकार छहों ऋतुओं के पूर्णतः सुन्दर, सुखद होने की कामना और प्रार्थना की गयी है। यह भी कहा गया है कि पितरों, तुम लोगों ने हमको गृहस्थ(विवाहित) बना दिया है, अतः हम तुम्हारे लिए दातव्य वस्तु अर्पित कर रहे हैं।
वेदों के बाद हमारे स्मृतिकारों और धर्माचार्यों ने श्राद्धीय विषयों को बहुत व्यापक बनाया और जीवन के प्रत्येक अंग के साथ सम्बद्ध कर दिया। मनुस्मृति से लेकर आधुनिक निर्णय सिन्धु, धर्मसिन्धु तक की परम्परा यह सिद्ध करती है कि इस विधि में समय समय पर युगानुरूप संशोधन, परिवर्धन होता रहा है। नयी मान्यता, नयी परिभाषा, नयी विवेचना और तदनुरूप नई व्यवस्था बराबर होती रहती है। दुर्भाग्य की बात यह है कि विदेशी आधिपत्य के बाद जब हिन्दु समाज पंगु हो गया, समाज का नियन्त्रण विदेशी पद्धति और विधि-विधान से होने लगा तो युग की आवश्यकता के अनुरूप नयी परिभाषा, व्यवस्था का क्रम भी अवरूद्ध हो गया, फलस्वरूप उपयोगितावादी मानव मन की तुष्टि अपने पुरातन संस्कारों से नहीं हो पा रहीं है और वह संस्कार विहीन होता जा रहा है। जीवित माता पिता, बंधु-बाधव भी आज मात्र उपयोगितावादी की कसौटी पर कसे जा रहे हैं; तब माता-पिता के प्रति आस्था, श्रद्धा और भक्ति की तो बात ही क्या ! इतना ही नहीं, हमारी आस्था स्वयं अपने घर से डिगती जा रही है। देश में व्याप्त समस्त अशान्ति, विक्षोभ, असंतोष, अनैतिकता आदि का मूल कारण यही है। जब हम स्वयं अधोर (शिव) नहीं है तो अधोराः पितरः सन्तु की कामना कैसे कर सकते है।
आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। श्राद्ध की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाय वही श्राद्ध है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यायित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से रेतस् का अंश लेकर वह चन्द्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है। इसीलिये इसको पितृपक्ष कहते हैं। अन्य दिनों में जो श्राद्ध तथा तर्पण किया जाता है, उसका सम्बन्ध सूर्य की उस सुषुम्ना नाड़ी से रहता है, जिसके द्वारा श्रद्धारश्मि मध्यान्हकाल में पृथ्वी पर आती रहती है और यहाँ से तत्तत् पितर का भाग ले जाती है; परन्तु पितृपक्ष में जितने पितृप्राण चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते है, वे स्वतः चन्द्रपिंड की परिवर्तित स्थिति के कारण पृथ्वी पर व्याप्त रहते हैं। इसी कारण पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध का इतना अधिक माहात्म्य है।
धर्मशास्त्र का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। उन्हें गन्धर्वलोक प्राप्त होने पर भोग्यरूप में, पशुयोनि में तृणरूप में, सर्पयोनि में वायु रूप में, यक्षयोनि में पेयरूप में, दानवयोनि में मांसरूप में, प्रेतयोनि में रूधिररूप में, और मनुष्यरूप में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।
जब पितर यह सुनते हैं कि श्राद्धकाल उपस्थित हो गया है तो वह एक दूसरे का स्मरण करते हुए मनोमय रूप से श्राद्धस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तो पितर अपने पुत्रों पौत्रों के यहाँ आते हैं। विशेषतः आश्विन अमावस्या के दिन वह दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तो वह शाप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प, फल और जल तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्ध नहीं होना चाहिए। कन्या गते सवितरि पितरो यान्ति वै सुतान्। अमावस्या दिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिताः। श्राद्धाभावे स्वभवनं शापं दत्वा व्रजन्ति ते।।
मुख्यतः श्राद्ध दो प्रकार के है। पहला एकोद्दिष्ट और दूसरा पार्वण; लेकिन बाद में चार श्राद्धों को मुख्यता दी गई। इनमें पार्वण, एकोद्दिष्ट, वृद्धि और सपिण्डीकरण आते हैं। आजकल यही चार श्राद्ध समाज में प्रचलित हैं। वृद्धिश्राद्धका मतलब नान्दीमुख श्राद्ध है। श्राद्धों की पूरी संख्या बारह है- नित्यं नैमित्तिकं काम्य वृद्धिश्राद्ध सपिंडनम्। पार्वण चेति विज्ञेयं गोष्ठ्यां शुद्धयर्थष्टमम्।। कर्मागं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतमृ। यात्रा स्वेकादर्श प्रोक्तं पुष्टयर्थ द्वादशं स्मृतम्।।
इनमें नित्यश्राद्ध, तर्पण और पञ्चमहायज्ञ आदि के रूप में, प्रतिदिन किया जाता है। नैमित्तिक श्राद्ध का ही नाम एकोद्दिष्ट है। यह किसी एक व्यक्ति के लिए किया जाता है। मृत्यु के बाद यही श्राद्ध होता है। प्रतिवर्ष मृत्युतिथि पर भी एकोद्दिष्ट ही किया जाता है। काम्य श्राद्ध अभिप्रेतार्थ सिद्धर्य्थ अर्थात् किसी कामना की पूर्ति की इच्छा के लिए किया जाता है। वृद्धिश्राद्ध पुत्र जन्म आदि के अवसर पर किया जाता है। इसी का नाम नान्दी श्राद्ध है। सपिण्डनश्राद्ध मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडषी के बाद किया जाता है। इसके बाद मृत व्यक्ति को पितरों के साथ मिलाया जाता है।
प्रेतश्राद्ध में जो पिण्डदान किया जाता है, उस पिण्ड को पितरों को दिये पिण्ड में मिला दिया जाता है। पार्वण श्राद्ध प्रतिवर्ष आश्विन कृष्णपक्ष में मृत्यु तिथि और अमावस्या के दिन किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी पर्वों पर भी यह श्राद्ध किया जाता था। गोष्ठी श्राद्ध विद्वानों को सुखी समृद्ध बनाने के उद्देश्य से किया जाता था। इससे पितरों की तृप्ति होना स्वाभाविक है। शुद्धि श्राद्ध शारीरिक मानसिक और अशौचादि अशुद्धि के निवारण के लिए किया जाता है। कर्मा¯ श्राद्ध सोमयाग, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन आदि के अवसर पर किया जाता था। दैविक श्राद्ध देवताओं की प्रसन्नता के लिए किया जाता था। यात्राश्राद्ध यात्रा काल में किया जाता था। पुष्टिश्राद्ध धन-धान्य समृद्धि की इच्छा से किया जाता था।
हमारे धर्मशास्त्रों में श्राद्ध के सम्बन्ध में इतने विस्तार से विचार किया गया है कि इसके सामने अन्य समस्त धार्मिक कृत्य गौण से लगने लगते हैं। श्राद्ध के छोटे से छोटे कृत्य के संबंध में इतनी सूक्ष्म मीमांसा और समीक्षा की है कि विचारशील व्यक्ति चमत्कृत हो उठते हैं। मनोविज्ञान के अध्येताओं के लिए श्राद्धीय कर्मकाण्ड विवेचन एवं अध्ययन की सामग्री है। शास्त्रकारों ने अपने पांडित्य और मनोविज्ञान का यत्परोनास्ति रूप प्रदर्शित किया है। नया मकान बनवाने पर, नया कूप तैयार करने पर, समृद्धि प्राप्त होने पर, देश में कोई नयी असाधारण घटना होने पर, शत्रुओं पर विजय प्राप्त होने पर, पुत्र जन्म, यज्ञोपवीत, विवाह, कन्या-दान आदि के अवसरों पर, जब परिवार के सब लोग उत्सव मना रहे हों, सबका मन उल्लासित हो, उस समय अपने स्वर्गीय बन्धुओं की स्मृति आना नितांत स्वाभाविक है। यह इच्छा भी उस समय अवश्य जागृत होती है कि यदि इस अवसर पर माता रहतीं, पिता रहते, बड़े भाई रहते, दूसरे आत्मीय रहते तो उनको कितना आनन्द प्राप्त होता। जो हमारे सुख में अपनी अन्तरात्मा से सुखी होते थे, दुःख में दुखी होते थे, उनकी स्मृति मिटाये मिट नहीं सकती। अतः यह इच्छा स्वाभाविक है कि वह अज्ञात लोक के वासी भी हमारे उल्लास में, आनन्दोत्सव में सम्मिलित हों; शरीर से न सही, आत्मा से हमारे साथ रहें; अतः उनके प्रति श्रद्धानत होना और श्रद्धानिवेदित करना स्वाभाविक हो जाता है। उनका शास्त्रीय मंत्रों द्वारा मानसिक आवाहन पूजन ही श्राद्ध है।
इस मनोवैज्ञानिक सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मन की भावना बड़ी प्रबल होती है। श्रद्धाभिभूत मन के सामने स्वर्गीय आत्मा सजीव और साकार हो उठती है। श्राद्ध में माता-पिता आदि के रूप का ध्यान करना आवश्यक कर्तव्य निर्धारित किया गया है। अनेक श्रद्धालु लोगों का यह अनुभव है कि श्राद्ध के समय माता-पिता, पिता या किसी अन्य स्नेही की झलक दिखाई दी। भगवान् राम ने जब अपने पिता का श्राद्ध किया तो पिण्ड दान के बाद भगवती सीता को दशरथ आदि पितरों का दर्शन कराया था। यह निरी कपोल कल्पना नहीं है। आज का मनोविज्ञान भी श्राद्ध के इस सत्य के निकट पहुँचता जा रहा है।
श्राद्ध के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है। उनपर भी शास्त्रों में बहुत विचार किया गया है। कौन वस्तु कैसी हो, कहाँ से ली जाय, कब ली जाय। भोजन सामग्री कैसी हो, किन पात्रों में बनायी जाय, कैसे बनायी जाय। फल, साग, तरकारी आदि में भी कुछ अश्राद्धीय ठहरा दी गयी है। प्रत्येक वस्तु की शुद्धता और स्तर निर्धारित कर दिया है। पुष्प और चन्दन जो निर्धारित है, उन्हीं का उपयोग हो सकता है।
इसके अलावा श्राद्ध में कैसे ब्राह्मणों को आमन्त्रित किया जाय, किस प्रकार किया जाय, कब किया जाय और निमन्त्रित ब्राह्मण निमन्त्रण के बाद किस तरह का आचरण करें, भोजन किस प्रकार करें, आदि सभी बातें विस्तार पूर्वक बतलायी गयी हैं। ब्राह्मणों को, उत्तम, मध्यम और अधम तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है। निषिद्ध ब्राह्मणों की सूची बड़ी लम्बी है। शास्त्र का कठोर आदेश है कि अन्य किसी धार्मिक कार्य में ब्राह्मणों की परीक्षा न की जाय, पर श्राद्ध में जिन ब्राह्मणों को आमन्त्रित करना हो, उनकी परीक्षा यत्नपूर्वक की जाय और परीक्षा आमन्त्रित करने के पूर्व कर ली जाय, बाद में नहीं - न ब्राह्मणं परीक्षेत देवै कर्मणि धर्मवित्। पित्र्ये कर्मणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्नतः।
श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि पर कभी न किया जाय। जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व न हो, सार्वजनिक हो, ऐसी भूमि पर श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्रीय निर्देश है कि दूसरे के घर में जो श्राद्ध किया जाता है, उसमें श्राद्ध करने वाले पितरों को कुछ नहीं मिलता। गृह-स्वामी के पितर बलात् सब छीन लेते हैं - परकीय गृहे यस्तु स्वात्पितृस्तर्पयेद्यदि। तद्भूमि स्वामिनस्तस्य हरन्ति पितरोबलात्।।
यह भी कहा गया है कि दूसरे के प्रदेश में यदि श्राद्ध किया जाय तो उस प्रदेश के स्वामी के पितर श्राद्धकर्म का विनाश कर देते हैं- परकीय प्रदेशेषु पितृणां निवषयेत्तुयः। तद्भूमि स्वामि पितृभिः श्राद्धकर्म विहन्यते।।
इसीलिए तीर्थ में किये गये श्राद्ध से भी आठगुना पुण्यप्रद श्राद्ध अपने घर में करने से होता है-तीर्थादष्टगृणं पुण्यं स्वगृहे ददतः शुभे। यदि किसी विवशता के कारण दूसरे के गृह अथवा भूमि पर श्राद्ध करना ही पड़े तो भूमि का मूल्य अथवा किराया पहले उसके स्वामी को दे दिया जाय।
मृतक की अन्त्येष्टि और श्राद्ध की जो व्यवस्था इस समय प्रचलित है, वह हमारे वेदों में वर्णित है। गृह्यसूत्रों में पितृयज्ञ अथवा पितृश्राद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। आश्वलायन गृह्यसूत्र की सप्तमी और अष्टमी कण्डिका में विस्तार पूर्वक श्राद्ध विधि वर्णित की गयी है; वह पठनीय और मननीय है। अन्त्येष्टि विधि का वर्णन भी इसमें उपलब्ध है। चिता प्रज्ज्वलित होने पर ऋग्वेद का यह मन्त्र पढ़ा जाता था - प्रेहि प्रेहि पथिभिः पूर्वेभिः अर्थात् जिस मार्ग से पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से तुम भी जाओ। मूलतः वेदों में भी श्राद्ध और पिण्डदान का उल्लेख किया गया है। श्राद्ध में जो मंत्र पढ़े जाते हैं, उनमें से कुछ ये हैं अत्र पितरो मादमध्वं यथाभागमा वृषायध्वम। इस पितृयज्ञ में पितृगण हृष्ट हो और अंशानुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करें। नम वः पितरो रसाय। नमो वः पितरो शोषाय। पितरों को नमस्कार ! बसन्त ऋतु का उदय होने पर समस्त पदार्थ रसवान हों। तुम्हारी कृपा से देश में सुन्दर बसन्त ऋतु प्राप्त हो। पितरों को नमस्कार ! ग्रीष्म ऋतु आने पर सर्व पदार्थ शुष्क हों। देश में ग्रीष्म ऋतु भलीभाँति व्याप्त हो।
इसी प्रकार छहों ऋतुओं के पूर्णतः सुन्दर, सुखद होने की कामना और प्रार्थना की गयी है। यह भी कहा गया है कि पितरों, तुम लोगों ने हमको गृहस्थ(विवाहित) बना दिया है, अतः हम तुम्हारे लिए दातव्य वस्तु अर्पित कर रहे हैं।
वेदों के बाद हमारे स्मृतिकारों और धर्माचार्यों ने श्राद्धीय विषयों को बहुत व्यापक बनाया और जीवन के प्रत्येक अंग के साथ सम्बद्ध कर दिया। मनुस्मृति से लेकर आधुनिक निर्णय सिन्धु, धर्मसिन्धु तक की परम्परा यह सिद्ध करती है कि इस विधि में समय समय पर युगानुरूप संशोधन, परिवर्धन होता रहा है। नयी मान्यता, नयी परिभाषा, नयी विवेचना और तदनुरूप नई व्यवस्था बराबर होती रहती है। दुर्भाग्य की बात यह है कि विदेशी आधिपत्य के बाद जब हिन्दु समाज पंगु हो गया, समाज का नियन्त्रण विदेशी पद्धति और विधि-विधान से होने लगा तो युग की आवश्यकता के अनुरूप नयी परिभाषा, व्यवस्था का क्रम भी अवरूद्ध हो गया, फलस्वरूप उपयोगितावादी मानव मन की तुष्टि अपने पुरातन संस्कारों से नहीं हो पा रहीं है और वह संस्कार विहीन होता जा रहा है। जीवित माता पिता, बंधु-बाधव भी आज मात्र उपयोगितावादी की कसौटी पर कसे जा रहे हैं; तब माता-पिता के प्रति आस्था, श्रद्धा और भक्ति की तो बात ही क्या ! इतना ही नहीं, हमारी आस्था स्वयं अपने घर से डिगती जा रही है। देश में व्याप्त समस्त अशान्ति, विक्षोभ, असंतोष, अनैतिकता आदि का मूल कारण यही है। जब हम स्वयं अधोर (शिव) नहीं है तो अधोराः पितरः सन्तु की कामना कैसे कर सकते है।
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