धर्मशास्त्रीय निर्देशों के अनुसार ‘वास्तु पूजा प्रकुर्वीत ग्रहारम्भे प्रवेशे च’ अर्थात् भूमि का परीक्षण एवं पूजन अवश्य करना चाहिए। वर्तमान समय में जनमानस का रूझान (वास्तु-शास्त्र) की ओर बढ़ा है। यहाँ तक कि विदेशों में भी वास्तु पर शोध होकर भवनों का निर्माण होने लगा है यदि निवास अथवा ‘व्यापारिक स्थान’ बनाने के पूर्व ‘वास्तु-शास्त्र’ के निर्देशों पर ध्यान दें लें तो जीवन ऐश्वर्यमय एवं सुख-शांति से व्यतीत होगा। इसमें कोई संदेह नहीं है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन-निर्माण करने से पूर्व शिलान्यास करना चाहिए जिस दिशा में शिलान्यास किया जाता है, उसका विचार सूर्य संक्रान्ति के आधार पर दो दिशाओं के मध्य भाग (कोण) के अन्तर्गत किया जाता है। शिलान्यास के लिये पाँच शिलाओं का स्थापन करना चाहिए। स्थापन से पूर्व यथासम्भव देवार्चन एवं शिला-पूजन करना चाहिए। भवन-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि दीवार सीधी और एक आकृति वाली होनी चाहिए, कहीं से मोटी और कहीं से पतली दीवार होने से उसका प्रभाव गृहस्वामी के लिए कष्टप्रद होता है। भवन में कक्षों के अर्न्तगत रोशनी और हवा का ध्यान रखते हुए खिड़कियों तथा सामान आदि के लिये अलमारी अवश्य करना चाहिए।
प्लाट के चारों ओर खाली स्थान छोड़ना चाहिए, जिसमें पूर्व और उत्तर दिशा में अधिक खाली स्थान रखकर गैराज व लान का प्रयोग शुभकारक होता है। भवन-निर्माण में उत्तर एवं पूर्व दिशा में भूखंड का खाली स्थान दक्षिण एवं पश्चिम दिशा की अपेक्षा अधिक रहना श्रेयस्कर होता है। भवन-निर्माण के समय उसकी आकृति का ध्यान रखना अति आवश्यक है। प्रायः भवनों के निम्नलिखित आकार का फल इस प्रकार है-
1. आयताकार सभी प्रकार की प्राप्ति
2. चतुरान्न धन-वृद्धि
3. भद्रासन जीवन में सफलता
4. गोलाकार ज्ञान एवं स्वास्थ्यवर्धक
5. चक्राकार निर्धनता
6. त्रिकोणाकार राजभय
7. शंक्वाकार धनहानि, रोगकारक, मृत्युभय, दण्डादि
8. विषम भुजाकार मानसिक परेशानियाँ
9. दण्डाकार पशुहानि
10. पणवाकार नेत्रपीड़ा एवं गृह हानि
11. भुजाकार स्त्रियों के लिए कष्ट एवं हानि
12. वृहद् मुखाकार पारिवारिक हानि, भ्रातृ-कलह
13. व्यंजनाकार (पंखा) धन-हानि एवं जीव हिंसा
14. कूर्म पृष्ठाकार शत्रुता, मृत्यु, हिंसा, अवनतिकारक
15. धनुषाकार विविध परेशानियाँ, चोट एवं शत्रुभय
16. शूपाकार सामान्य एवं कष्टकारक
वास्तु शास्त्र में 16 कक्षों की निर्धारित दिशाओं में निम्न प्रकार से कक्षों को स्थापित करना चाहिए। मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार-पूर्व में स्नानागार, आग्नेय में रसोई, दक्षिण में शयन कक्ष, नैऋर्त्य में विश्राम कक्ष, पश्चिम में भोजन कक्ष, वायव्य में अन्न संग्रह, उत्तर में धनागार, ईशान में पूजास्थल, पूर्व एवं आग्नेय के मध्य में आग्नेय एवं दक्षिण के मध्य घृत संग्रह, दक्षिण और नैऋर्त्य के मध्य शौचालय, नैऋर्त्य और पश्चिम के मध्य अध्ययन कक्ष, पश्चिम के मध्य दण्डाकार, उत्तर-पश्चिम के मध्य शयन कक्ष, अविवाहित संतानों के लिए उत्तर एवं ईशान के मध्य औषद्द कक्ष, पूर्व एवं ईशान के मध्य स्वागत एवं सार्वजनिक कक्षों का निर्माण का उल्लेख है।
भवन में विभिन्न कक्षों की स्थिति वास्तु के अनुसार इस प्रकार होनी चाहिए। पूजा कक्ष, भवन का मुख्य अंग है। पूजन, भजन, कीर्तन, अध्ययन-अध्यापन कार्य सदैव ईशान कोण में होना चाहिए। पूजास्थल से मानसिक शांति, बुद्धि शुद्धि, मन पर शुद्ध संस्कार प्रभाव डालते हैं। पूजा करते समय व्यक्ति का मुख पूर्व में होना चाहिए, ईश्वर की मूर्ति का मुख पूर्व, पश्चिम व दक्षिण की ओर होना चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य, कार्तिकेय का मुख पूर्व या पश्चिम की ओर होना चाहिए। गणेश, कुबेर, दुर्गा, भैरव, षोडश,मातृका का मुख सदैव दक्षिण की ओर होना चाहिए। हनुमान जी का मुख नैऋत्य कोण की ओर होना चाहिए, पूजास्थल अन्य किसी कोण में बनाना उचित नहीं है। फैक्ट्री, मिल या इण्डस्ट्री के ईशान कोण में मंदिर अथवा आराद्दना-स्थल का निर्माण करना चाहिए। स्वागत कक्ष, अतिथि गृह, पीने का पानी, यह सभी ईशान कोण की ओर रखना शुभ होता है।
रसोईघर- भवन में रसोईघर आग्नेय कोण या पूर्व या आग्नेय के मध्य या पूर्व में बनाना चाहिए। रसोईघर में चूल्हा या गैस आग्नेय कोण में रखें। ताजी हवा का पंखा उत्तर व पूर्व दिशा में लगायें।
भोजनालय - प्राचीन काल में भोजन रसोईघर में ही किया जाता था, परन्तु वर्तमान में भोजन के लिए अलग कक्ष की स्थापना की जाती है। बहुधा स्थानाभाव में भोजन कक्ष ड्रांइगरूम के एक भाग में बना लिया जाता है। डायनिंग टेबल ड्रांइगरूम के दक्षिण-पूर्व में रखनी चाहिए अथवा भोजन कक्ष में भी दक्षिण-पूर्व में रखनी चाहिए। भोजनालय या भोजन कक्ष भवन में पश्चिम या पूर्व दिशा में बनाना चाहिए।
भण्डारगृह अथवा स्टोर- प्राचीनकाल में पूरे वर्ष के लिये अन्नादि का संग्रह किया जाता था। इसलिए भवन में भण्डार-गृह की अलग व्यवस्था होती थी परन्तु वर्तमान में स्थानाभाव के कारण रसोईघर में खाद्यान्न रख लिया जाता है। खाद्यान्न रसोईघर में ईशान और आग्नेय कोण के मध्य पूर्वी दीवार के सहारे रखना चाहिए। यदि स्थान उपलब्ध है तो भवन के ईशान और आग्नेय कोण के मध्य पूर्वी भाग में भण्डार-गृह का निर्माण करना श्रेष्ठ होता है।
शौचालय - वास्तु नियमों के आधार पर शौचालय हेतु नैऋर्त्य कोण व दक्षिण कोण के मध्य या नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य स्थान सार्वाधिक उपयुक्त है। शौचालय में शीट इस तरह रखी जानी चाहिए कि बैठते समय उसका मुख दक्षिण या पश्चिम की ओर हो। पानी का बहाव उत्तर-पूर्व में रखें। उत्तरी व पूर्वी दीवार के साथ शौचालय न बनावायें।
स्नानगृह - वास्तु नियमों के अनुसार, स्नानागृह भवन के पश्चिम-दक्षिण दिशा के मध्य अथवा नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य होना चाहिए। मतान्तर में पूर्व में रखें। आधुनिक स्नानागृह में गीजर इत्यादि की भी व्यवस्था होती है। गीजर आदि का संबंद्द अग्नि से होने के कारण सदैव आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) में लगाना चाहिए। स्नानागृह व शौचालय के लिए अलग-अलग स्थान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। परन्तु स्थान सीमित होने के कारण ऐसा संभव न हो और स्नानागृह तथा शौचालय एक साथ बनाना पड़े तो भवन के दक्षिण-पश्चिम भाग में या वायव्य कोण में बनाना चाहिए। यदि कोई विकल्प न मिले तो आग्नेय कोण में शौचालय बनाकर उसके साथ पूर्व की ओर स्नानागृह समायोजित कर लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि स्नानागृह व शौचालय नैऋर्त्य कोण व ईशान कोण में कदापि न बनवायें, वैसे जहाँ तक संभव हो, ये अलग-अलग भाग में या वायव्य कोण में बनाने चाहिए।
शयनकक्ष- भवन में शयन कक्ष दक्षिण या पश्चिम दिशा में होना चाहिए। सोते समय सिर दक्षिण दिशा में, पैर उत्तर दिशा में होना चाहिए। ऐसा होने को सोने वाले को शांति व गहरी नींद आती है। घर में सुख-समृद्धि व धन-धान्य की वृद्धि होती है। यदि दक्षिण दिशा में सिरहाना रखना संभव न हो तो सिरहाना पश्चिम दिशा की ओर होना चाहिए। अन्य दिशाओं में सिरहाना रखने से मन शान्त नहीं होता है।
अध्ययन कक्ष- वास्तु नियमों के अनुसार वायव्य, नैऋत्य कोण और पश्चिम दिशा के मध्य अध्ययन कक्ष बनाना श्रेष्ठ होता है। ईशान कोण में पूर्व दिशा में पूजागृह के साथ भी सर्वोत्तम होता है।
पानी की टंकी- भवन की छत पर पानी की टंकी बनाने हेतु भव्य व उत्तर दिशा के मध्य या वायव्य व पश्चिम दिशा के मध्य का स्थान शुभ होता है। भूमिगत पानी की टंकी के लिए ईशान कोण सर्वोत्तम होता है।
जल प्रवाह- भवन निर्माण के समय जलप्रवाह का विशेष ध्यान रखना चाहिए। वास्तु नियम के अनुसार समस्त जलप्रवाह पूर्व, वायव्य, उत्तर और ईशान कोण में रखना शुभ है। जल उत्तर-पूर्व व उत्तर-पश्चिम कोण से घर के बाहर निकलना चाहिए। वास्तु के अनुसार पूर्व दिशा में जल निकास शुभ, उत्तर दिशा में द्दन-लाभ, दक्षिण दिशा में रोग व कष्ट, पश्चिम में धन हानिकारक है। जल का निकास ईशान, उत्तर और पूर्व दिशा में शुभ होता है। अर्थात् भवन का समस्त जलप्रवाह पूर्व, वायव्य, उत्तर और ईशान दिशा में रखना शुभ होता है। भवन के पूर्व दिशा में नाली निकालने का मार्ग वृद्धिदायक, उत्तर दिशा में अर्थलाभ, दक्षिण दिशा की ओर रोग, पीड़ा एवं पश्चिम दिशा की ओर धन हानि होती है। अतः वास्तुशास्त्र नियमों के अनुसार जल का प्रवाह उत्तर-पूर्व (ईशान) पूर्व-उत्तर दिशा की ओर ही रखना चाहिए।
आँगन- भवन का केन्द्रीय स्थल ब्रह्मस्थान कहलाता है। प्राचीन समय में ब्रह्मस्थान आंगन (चौक) होता था। वर्तमान में स्थानाभाव के कारण आंगन का प्रावधान खत्म होता जा रहा है। भवन के मध्य में आंगन या खुलास्थान इस प्रकार उत्तर या पूर्व की ओर रखें जिससे सूर्य का प्रकाश अधिकाधिक प्रविष्ट हो आंगन मध्य मेंं ऊँचा और चारों ओर नीचा हो तो शुभ एवं मध्य में नीचा और चारों और ऊँचा हानिकारक होता है।
पशुशाला- वास्तु के आधार पर गौशाला अथवा पशुशाला के लिए भवन में उत्तर-पश्चिम दिशा और अर्थात् वायव्य कोण का स्थान शुभप्रद होता है।
बालकनी- हवा, धूप व भवन के सौन्दर्य के लिए बालकनी का विशेष महत्व है। वास्तु के आधार पर यदि भूखण्ड पूर्वोन्मुख है तो बालकनी उत्तर-पूर्व यदि भूखण्ड पश्चिमोन्मुख है तो बालकनी का स्थान-सा चयन करते समय ध्यान रखें कि सूर्य का प्रकाश एवं प्राकृतिक हवा का प्रवेश भवन में होता रहे।
गैराज- वास्तु के अनुसार गैराज भवन के दक्षिण-पूर्व या उत्तर-पश्चिम दिशा में बनाना चाहिए।
विद्युत एवं प्रकाश- भवन निर्माण के समय विद्युत एवं प्रकाश का विशेष ध्यान रखना चाहिए। बिजली का मेन स्विच बोर्ड, भवन के दक्षिण भाग में लगवाना चाहिये। कक्ष में प्रवेश करते समय दाहिने हाथ की ओर बिजली का बोर्ड लगवाना चाहिये। बायीं ओर अशुभकारक होता है। भवन के प्रत्येक कक्ष का निर्माण इस तरह करवाना चाहिये कि सूर्य की किरणें निर्बाध प्रवेश करें। स्वास्थ्य एवं भवन की सुरक्षा के लिये सूर्य का प्रकाश व वायु संचारण का विशेष ध्यान रखना चाहिये। प्रदूषित वायु को बाहर निकालने के लिये एक्जास्ट आदि का सही दिशा में निर्धारण करना चाहिए।
सोपान या सीढ़ी- वास्तु के अनुसार सीढ़ियों का द्वार पूर्व व दक्षिण दिशा में शुभ होता है। यदि सीढ़ियाँ घुमावदार बनवानी हों तो उसका घुमाव सदैव पूर्व से दक्षिण, दक्षिण से पश्चिम, पश्चिम से उत्तर और उत्तर से पूर्व की ओर होना चाहिए। सीढ़ियाँ हमेशा विषम संख्या में बनवानी चाहिए। सीढ़ियों के नीचे एवं ऊपर द्वार खुला होना चाहिए।
तिजोरी- भवन मेंं तिजोरी नगदी आदि सदैव उत्तर दिशा में रखना चाहिए, क्यांकि कुबेर का वास उत्तर दिशा में होता है। तिजोरी में श्रीयंत्र या लक्ष्मी-कुबेर यंत्र भी रखना चाहिए, ऐसा करने पर तिजोरी कभी खाली नहीं होती है।
तहखाना या तलघर- तहखाने का निर्माण भूखण्ड के पूर्व या उत्तर दिशा की ओर करवाना शुभ तथा अन्य दिशाओं में अशुभकारक होता है। सम्पूर्ण भवन में तलघन नहींं बनवाना चाहिए, यदि तलघर का आकार चूल्हे के आकार त्रिशाल वास्तु आकार का हो तो यह निर्माणकर्ता के लिये कष्टप्रद होता है।
सेवक कक्ष- वास्तु के अनुसार सेवकों के लिये कक्ष भवन के दक्षिण-पूर्व या उत्तर-पूर्व में होना चाहिए। इसमें सेवक भी प्रसन्नता से रहते हैं। उत्तर एवं दिशा की दीवारों का वजन अद्दिक न हो।
खिड़कियाँ- भवन में खिड़कियों की संख्या सम होनी चाहिए। पश्चिमी, पूर्वी और उत्तरी दीवारों पर खिड़कियों का निर्माण शुभ होता है। प्रायः द्वार के सामने खिड़कियां होनी चाहिये, ऐसा करने से गृह में सुख-शांति रहती है। खिड़कियों का निर्माण सन्धि का भाग में ऊँचाई कम रखना चाहिए।
खुला द्वार- भूखण्ड में उत्तर-पूर्व (ईशान) में खुला द्वार रखना चाहिए, दक्षिण व पश्चिम में खुला स्थान कम होना चाहिए। यदि दो मंजिल भवन है तो पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर भवन की ऊँचाई कम होनी चाहिए।
मुख्य द्वार- वास्तु नियम के अनुसार मुख्य द्वार उत्तर या पूर्व दिशा में हो। दक्षिण एवं पश्चिम में द्वार नहीं होना चाहिए। यदि भूखण्ड पूर्वोन्मुख हो तो मुख्य द्वार ईशान और पूर्व दिशा की ओर बनाना चाहिये। यदि भूखण्ड दक्षिणोन्मुख हो तो मुख्य द्वार आग्नेय और दक्षिण दिशा के मध्य बनाना चाहिये। यदि भूखण्ड पश्चिमोन्मुख हो तो मुख्य द्वार पर नैऋर्त्य और पश्चिम दिशा के मध्य बनाना चाहिये। उत्तरोन्मुख हो तो मुख्य द्वार वायव्य और उत्तर दिशा के मध्य होना चाहिए। दरवाजों की संख्या सम होनी चाहिए। द्वार के सामने सीढ़ी, खम्बा नहीं होना चाहिए।
भवन में वृक्ष- ऊँचे व घने वृक्ष दक्षिण,पश्चिम भाग में लगाने चाहिए। अन्य वृक्ष किसी भी दिशा में लाभदायक होते हैं।
भवन की ऊँचाई- भवन की ऊँचाई के लिये भवन की चौड़ाई के 16वें भाग में चार हाथ (16 अँगुल) जोड़कर जितना योग हो, उसके समान ऊँचाई होनी चाहिए। यदि भवन को दो मंजिल या इससे अधिक का निर्माण कराना हो तो पहली ऊँचाई रखनी चाहिए। यही क्रम तीसरी मंजिल के लिये भी होना चाहिये।
यदि इस क्रम में 4, 3-1/2, 3 हाथ जोड़ा जाय तो ऊँचाई उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ तीन प्रकार की होगी। यदि इस क्रम में भी क्रमशः चार हाथ में 26, 21, 16 अंगुल तथा 3-1/2 और तीन हाथ में 26, 21, 15 अंगुल और जोड़ने पर उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ ऊँचाई के तीन-तीन भेद हो जायेंगे। इस प्रकार कुल 12 भेद होंगे, इनमें 8वां और 10वां भाग समान होने से 11 भेद हो जायेंगे। भवन में ऊँचाई का निर्णय इस रीति से करना चाहिये। कई विद्वानों के मत में चारों दिशाओं में ऊँचाई समान होनी चाहिये, पूर्वोत्तर में ऊँचा गृह पुत्रनाशक होता है। आठों दिशाओं में भवन के ऊँचे अथवा नीचे होने का परिणाम से जानना चाहिये।
वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन-निर्माण करने से पूर्व शिलान्यास करना चाहिए जिस दिशा में शिलान्यास किया जाता है, उसका विचार सूर्य संक्रान्ति के आधार पर दो दिशाओं के मध्य भाग (कोण) के अन्तर्गत किया जाता है। शिलान्यास के लिये पाँच शिलाओं का स्थापन करना चाहिए। स्थापन से पूर्व यथासम्भव देवार्चन एवं शिला-पूजन करना चाहिए। भवन-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि दीवार सीधी और एक आकृति वाली होनी चाहिए, कहीं से मोटी और कहीं से पतली दीवार होने से उसका प्रभाव गृहस्वामी के लिए कष्टप्रद होता है। भवन में कक्षों के अर्न्तगत रोशनी और हवा का ध्यान रखते हुए खिड़कियों तथा सामान आदि के लिये अलमारी अवश्य करना चाहिए।
प्लाट के चारों ओर खाली स्थान छोड़ना चाहिए, जिसमें पूर्व और उत्तर दिशा में अधिक खाली स्थान रखकर गैराज व लान का प्रयोग शुभकारक होता है। भवन-निर्माण में उत्तर एवं पूर्व दिशा में भूखंड का खाली स्थान दक्षिण एवं पश्चिम दिशा की अपेक्षा अधिक रहना श्रेयस्कर होता है। भवन-निर्माण के समय उसकी आकृति का ध्यान रखना अति आवश्यक है। प्रायः भवनों के निम्नलिखित आकार का फल इस प्रकार है-
1. आयताकार सभी प्रकार की प्राप्ति
2. चतुरान्न धन-वृद्धि
3. भद्रासन जीवन में सफलता
4. गोलाकार ज्ञान एवं स्वास्थ्यवर्धक
5. चक्राकार निर्धनता
6. त्रिकोणाकार राजभय
7. शंक्वाकार धनहानि, रोगकारक, मृत्युभय, दण्डादि
8. विषम भुजाकार मानसिक परेशानियाँ
9. दण्डाकार पशुहानि
10. पणवाकार नेत्रपीड़ा एवं गृह हानि
11. भुजाकार स्त्रियों के लिए कष्ट एवं हानि
12. वृहद् मुखाकार पारिवारिक हानि, भ्रातृ-कलह
13. व्यंजनाकार (पंखा) धन-हानि एवं जीव हिंसा
14. कूर्म पृष्ठाकार शत्रुता, मृत्यु, हिंसा, अवनतिकारक
15. धनुषाकार विविध परेशानियाँ, चोट एवं शत्रुभय
16. शूपाकार सामान्य एवं कष्टकारक
वास्तु शास्त्र में 16 कक्षों की निर्धारित दिशाओं में निम्न प्रकार से कक्षों को स्थापित करना चाहिए। मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार-पूर्व में स्नानागार, आग्नेय में रसोई, दक्षिण में शयन कक्ष, नैऋर्त्य में विश्राम कक्ष, पश्चिम में भोजन कक्ष, वायव्य में अन्न संग्रह, उत्तर में धनागार, ईशान में पूजास्थल, पूर्व एवं आग्नेय के मध्य में आग्नेय एवं दक्षिण के मध्य घृत संग्रह, दक्षिण और नैऋर्त्य के मध्य शौचालय, नैऋर्त्य और पश्चिम के मध्य अध्ययन कक्ष, पश्चिम के मध्य दण्डाकार, उत्तर-पश्चिम के मध्य शयन कक्ष, अविवाहित संतानों के लिए उत्तर एवं ईशान के मध्य औषद्द कक्ष, पूर्व एवं ईशान के मध्य स्वागत एवं सार्वजनिक कक्षों का निर्माण का उल्लेख है।
भवन में विभिन्न कक्षों की स्थिति वास्तु के अनुसार इस प्रकार होनी चाहिए। पूजा कक्ष, भवन का मुख्य अंग है। पूजन, भजन, कीर्तन, अध्ययन-अध्यापन कार्य सदैव ईशान कोण में होना चाहिए। पूजास्थल से मानसिक शांति, बुद्धि शुद्धि, मन पर शुद्ध संस्कार प्रभाव डालते हैं। पूजा करते समय व्यक्ति का मुख पूर्व में होना चाहिए, ईश्वर की मूर्ति का मुख पूर्व, पश्चिम व दक्षिण की ओर होना चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य, कार्तिकेय का मुख पूर्व या पश्चिम की ओर होना चाहिए। गणेश, कुबेर, दुर्गा, भैरव, षोडश,मातृका का मुख सदैव दक्षिण की ओर होना चाहिए। हनुमान जी का मुख नैऋत्य कोण की ओर होना चाहिए, पूजास्थल अन्य किसी कोण में बनाना उचित नहीं है। फैक्ट्री, मिल या इण्डस्ट्री के ईशान कोण में मंदिर अथवा आराद्दना-स्थल का निर्माण करना चाहिए। स्वागत कक्ष, अतिथि गृह, पीने का पानी, यह सभी ईशान कोण की ओर रखना शुभ होता है।
रसोईघर- भवन में रसोईघर आग्नेय कोण या पूर्व या आग्नेय के मध्य या पूर्व में बनाना चाहिए। रसोईघर में चूल्हा या गैस आग्नेय कोण में रखें। ताजी हवा का पंखा उत्तर व पूर्व दिशा में लगायें।
भोजनालय - प्राचीन काल में भोजन रसोईघर में ही किया जाता था, परन्तु वर्तमान में भोजन के लिए अलग कक्ष की स्थापना की जाती है। बहुधा स्थानाभाव में भोजन कक्ष ड्रांइगरूम के एक भाग में बना लिया जाता है। डायनिंग टेबल ड्रांइगरूम के दक्षिण-पूर्व में रखनी चाहिए अथवा भोजन कक्ष में भी दक्षिण-पूर्व में रखनी चाहिए। भोजनालय या भोजन कक्ष भवन में पश्चिम या पूर्व दिशा में बनाना चाहिए।
भण्डारगृह अथवा स्टोर- प्राचीनकाल में पूरे वर्ष के लिये अन्नादि का संग्रह किया जाता था। इसलिए भवन में भण्डार-गृह की अलग व्यवस्था होती थी परन्तु वर्तमान में स्थानाभाव के कारण रसोईघर में खाद्यान्न रख लिया जाता है। खाद्यान्न रसोईघर में ईशान और आग्नेय कोण के मध्य पूर्वी दीवार के सहारे रखना चाहिए। यदि स्थान उपलब्ध है तो भवन के ईशान और आग्नेय कोण के मध्य पूर्वी भाग में भण्डार-गृह का निर्माण करना श्रेष्ठ होता है।
शौचालय - वास्तु नियमों के आधार पर शौचालय हेतु नैऋर्त्य कोण व दक्षिण कोण के मध्य या नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य स्थान सार्वाधिक उपयुक्त है। शौचालय में शीट इस तरह रखी जानी चाहिए कि बैठते समय उसका मुख दक्षिण या पश्चिम की ओर हो। पानी का बहाव उत्तर-पूर्व में रखें। उत्तरी व पूर्वी दीवार के साथ शौचालय न बनावायें।
स्नानगृह - वास्तु नियमों के अनुसार, स्नानागृह भवन के पश्चिम-दक्षिण दिशा के मध्य अथवा नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य होना चाहिए। मतान्तर में पूर्व में रखें। आधुनिक स्नानागृह में गीजर इत्यादि की भी व्यवस्था होती है। गीजर आदि का संबंद्द अग्नि से होने के कारण सदैव आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) में लगाना चाहिए। स्नानागृह व शौचालय के लिए अलग-अलग स्थान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। परन्तु स्थान सीमित होने के कारण ऐसा संभव न हो और स्नानागृह तथा शौचालय एक साथ बनाना पड़े तो भवन के दक्षिण-पश्चिम भाग में या वायव्य कोण में बनाना चाहिए। यदि कोई विकल्प न मिले तो आग्नेय कोण में शौचालय बनाकर उसके साथ पूर्व की ओर स्नानागृह समायोजित कर लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि स्नानागृह व शौचालय नैऋर्त्य कोण व ईशान कोण में कदापि न बनवायें, वैसे जहाँ तक संभव हो, ये अलग-अलग भाग में या वायव्य कोण में बनाने चाहिए।
शयनकक्ष- भवन में शयन कक्ष दक्षिण या पश्चिम दिशा में होना चाहिए। सोते समय सिर दक्षिण दिशा में, पैर उत्तर दिशा में होना चाहिए। ऐसा होने को सोने वाले को शांति व गहरी नींद आती है। घर में सुख-समृद्धि व धन-धान्य की वृद्धि होती है। यदि दक्षिण दिशा में सिरहाना रखना संभव न हो तो सिरहाना पश्चिम दिशा की ओर होना चाहिए। अन्य दिशाओं में सिरहाना रखने से मन शान्त नहीं होता है।
अध्ययन कक्ष- वास्तु नियमों के अनुसार वायव्य, नैऋत्य कोण और पश्चिम दिशा के मध्य अध्ययन कक्ष बनाना श्रेष्ठ होता है। ईशान कोण में पूर्व दिशा में पूजागृह के साथ भी सर्वोत्तम होता है।
पानी की टंकी- भवन की छत पर पानी की टंकी बनाने हेतु भव्य व उत्तर दिशा के मध्य या वायव्य व पश्चिम दिशा के मध्य का स्थान शुभ होता है। भूमिगत पानी की टंकी के लिए ईशान कोण सर्वोत्तम होता है।
जल प्रवाह- भवन निर्माण के समय जलप्रवाह का विशेष ध्यान रखना चाहिए। वास्तु नियम के अनुसार समस्त जलप्रवाह पूर्व, वायव्य, उत्तर और ईशान कोण में रखना शुभ है। जल उत्तर-पूर्व व उत्तर-पश्चिम कोण से घर के बाहर निकलना चाहिए। वास्तु के अनुसार पूर्व दिशा में जल निकास शुभ, उत्तर दिशा में द्दन-लाभ, दक्षिण दिशा में रोग व कष्ट, पश्चिम में धन हानिकारक है। जल का निकास ईशान, उत्तर और पूर्व दिशा में शुभ होता है। अर्थात् भवन का समस्त जलप्रवाह पूर्व, वायव्य, उत्तर और ईशान दिशा में रखना शुभ होता है। भवन के पूर्व दिशा में नाली निकालने का मार्ग वृद्धिदायक, उत्तर दिशा में अर्थलाभ, दक्षिण दिशा की ओर रोग, पीड़ा एवं पश्चिम दिशा की ओर धन हानि होती है। अतः वास्तुशास्त्र नियमों के अनुसार जल का प्रवाह उत्तर-पूर्व (ईशान) पूर्व-उत्तर दिशा की ओर ही रखना चाहिए।
आँगन- भवन का केन्द्रीय स्थल ब्रह्मस्थान कहलाता है। प्राचीन समय में ब्रह्मस्थान आंगन (चौक) होता था। वर्तमान में स्थानाभाव के कारण आंगन का प्रावधान खत्म होता जा रहा है। भवन के मध्य में आंगन या खुलास्थान इस प्रकार उत्तर या पूर्व की ओर रखें जिससे सूर्य का प्रकाश अधिकाधिक प्रविष्ट हो आंगन मध्य मेंं ऊँचा और चारों ओर नीचा हो तो शुभ एवं मध्य में नीचा और चारों और ऊँचा हानिकारक होता है।
पशुशाला- वास्तु के आधार पर गौशाला अथवा पशुशाला के लिए भवन में उत्तर-पश्चिम दिशा और अर्थात् वायव्य कोण का स्थान शुभप्रद होता है।
बालकनी- हवा, धूप व भवन के सौन्दर्य के लिए बालकनी का विशेष महत्व है। वास्तु के आधार पर यदि भूखण्ड पूर्वोन्मुख है तो बालकनी उत्तर-पूर्व यदि भूखण्ड पश्चिमोन्मुख है तो बालकनी का स्थान-सा चयन करते समय ध्यान रखें कि सूर्य का प्रकाश एवं प्राकृतिक हवा का प्रवेश भवन में होता रहे।
गैराज- वास्तु के अनुसार गैराज भवन के दक्षिण-पूर्व या उत्तर-पश्चिम दिशा में बनाना चाहिए।
विद्युत एवं प्रकाश- भवन निर्माण के समय विद्युत एवं प्रकाश का विशेष ध्यान रखना चाहिए। बिजली का मेन स्विच बोर्ड, भवन के दक्षिण भाग में लगवाना चाहिये। कक्ष में प्रवेश करते समय दाहिने हाथ की ओर बिजली का बोर्ड लगवाना चाहिये। बायीं ओर अशुभकारक होता है। भवन के प्रत्येक कक्ष का निर्माण इस तरह करवाना चाहिये कि सूर्य की किरणें निर्बाध प्रवेश करें। स्वास्थ्य एवं भवन की सुरक्षा के लिये सूर्य का प्रकाश व वायु संचारण का विशेष ध्यान रखना चाहिये। प्रदूषित वायु को बाहर निकालने के लिये एक्जास्ट आदि का सही दिशा में निर्धारण करना चाहिए।
सोपान या सीढ़ी- वास्तु के अनुसार सीढ़ियों का द्वार पूर्व व दक्षिण दिशा में शुभ होता है। यदि सीढ़ियाँ घुमावदार बनवानी हों तो उसका घुमाव सदैव पूर्व से दक्षिण, दक्षिण से पश्चिम, पश्चिम से उत्तर और उत्तर से पूर्व की ओर होना चाहिए। सीढ़ियाँ हमेशा विषम संख्या में बनवानी चाहिए। सीढ़ियों के नीचे एवं ऊपर द्वार खुला होना चाहिए।
तिजोरी- भवन मेंं तिजोरी नगदी आदि सदैव उत्तर दिशा में रखना चाहिए, क्यांकि कुबेर का वास उत्तर दिशा में होता है। तिजोरी में श्रीयंत्र या लक्ष्मी-कुबेर यंत्र भी रखना चाहिए, ऐसा करने पर तिजोरी कभी खाली नहीं होती है।
तहखाना या तलघर- तहखाने का निर्माण भूखण्ड के पूर्व या उत्तर दिशा की ओर करवाना शुभ तथा अन्य दिशाओं में अशुभकारक होता है। सम्पूर्ण भवन में तलघन नहींं बनवाना चाहिए, यदि तलघर का आकार चूल्हे के आकार त्रिशाल वास्तु आकार का हो तो यह निर्माणकर्ता के लिये कष्टप्रद होता है।
सेवक कक्ष- वास्तु के अनुसार सेवकों के लिये कक्ष भवन के दक्षिण-पूर्व या उत्तर-पूर्व में होना चाहिए। इसमें सेवक भी प्रसन्नता से रहते हैं। उत्तर एवं दिशा की दीवारों का वजन अद्दिक न हो।
खिड़कियाँ- भवन में खिड़कियों की संख्या सम होनी चाहिए। पश्चिमी, पूर्वी और उत्तरी दीवारों पर खिड़कियों का निर्माण शुभ होता है। प्रायः द्वार के सामने खिड़कियां होनी चाहिये, ऐसा करने से गृह में सुख-शांति रहती है। खिड़कियों का निर्माण सन्धि का भाग में ऊँचाई कम रखना चाहिए।
खुला द्वार- भूखण्ड में उत्तर-पूर्व (ईशान) में खुला द्वार रखना चाहिए, दक्षिण व पश्चिम में खुला स्थान कम होना चाहिए। यदि दो मंजिल भवन है तो पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर भवन की ऊँचाई कम होनी चाहिए।
मुख्य द्वार- वास्तु नियम के अनुसार मुख्य द्वार उत्तर या पूर्व दिशा में हो। दक्षिण एवं पश्चिम में द्वार नहीं होना चाहिए। यदि भूखण्ड पूर्वोन्मुख हो तो मुख्य द्वार ईशान और पूर्व दिशा की ओर बनाना चाहिये। यदि भूखण्ड दक्षिणोन्मुख हो तो मुख्य द्वार आग्नेय और दक्षिण दिशा के मध्य बनाना चाहिये। यदि भूखण्ड पश्चिमोन्मुख हो तो मुख्य द्वार पर नैऋर्त्य और पश्चिम दिशा के मध्य बनाना चाहिये। उत्तरोन्मुख हो तो मुख्य द्वार वायव्य और उत्तर दिशा के मध्य होना चाहिए। दरवाजों की संख्या सम होनी चाहिए। द्वार के सामने सीढ़ी, खम्बा नहीं होना चाहिए।
भवन में वृक्ष- ऊँचे व घने वृक्ष दक्षिण,पश्चिम भाग में लगाने चाहिए। अन्य वृक्ष किसी भी दिशा में लाभदायक होते हैं।
भवन की ऊँचाई- भवन की ऊँचाई के लिये भवन की चौड़ाई के 16वें भाग में चार हाथ (16 अँगुल) जोड़कर जितना योग हो, उसके समान ऊँचाई होनी चाहिए। यदि भवन को दो मंजिल या इससे अधिक का निर्माण कराना हो तो पहली ऊँचाई रखनी चाहिए। यही क्रम तीसरी मंजिल के लिये भी होना चाहिये।
यदि इस क्रम में 4, 3-1/2, 3 हाथ जोड़ा जाय तो ऊँचाई उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ तीन प्रकार की होगी। यदि इस क्रम में भी क्रमशः चार हाथ में 26, 21, 16 अंगुल तथा 3-1/2 और तीन हाथ में 26, 21, 15 अंगुल और जोड़ने पर उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ ऊँचाई के तीन-तीन भेद हो जायेंगे। इस प्रकार कुल 12 भेद होंगे, इनमें 8वां और 10वां भाग समान होने से 11 भेद हो जायेंगे। भवन में ऊँचाई का निर्णय इस रीति से करना चाहिये। कई विद्वानों के मत में चारों दिशाओं में ऊँचाई समान होनी चाहिये, पूर्वोत्तर में ऊँचा गृह पुत्रनाशक होता है। आठों दिशाओं में भवन के ऊँचे अथवा नीचे होने का परिणाम से जानना चाहिये।