Tuesday, June 25, 2013

.........व्रत और उपवास में भेद.........

                            ...व्रत और उपवास में भेद ... 
..... इस लोक में सनातन धर्म के अनुयायियों के बीच व्रत और उपवास यह दो प्रसिद्ध हैं . यह १- कायिक , २- वाचिक , ३- मानसिक , ४- नित्य , ५- नैमित्तिक , ६- काम्य , ७- एकभुक्त , ८- अयाचित , ९- मितभुक् , १० - चान्द्रायण , ११- प्राजापत्य के रूप में किये जाते हैं .
..... वास्तव में व्रत और उपवास में केवल यह अंतर है कि, व्रत में भोजन किया जा सकता है, किन्तु उपवास में निराहार रहना पडता है.
..... इनके कायिकादि ३ भेद हैं , १- शस्त्राघात , मर्माघात , और कार्य हानि आदिजनित हिंसा के शमन हेतु " कायिक , २- सत्य बोलने और प्राणिमात्र में निर्वैर रहने से " वाचिक", ३- मन को शांत रखने की दृढता हेतु " मानसिक" व्रत किया जाता है . जय महाशक्ति ....

.........प्रवज्या ( सन्यास ) योग.........

.....................प्रवज्या ( सन्यास ) योग ..................... .....प्रवज्या योग तब होता है , जब ४, ५, ६ या सातों ग्रह एकत्रित होकर किसी स्थान में बैठे हो, तो ऐसा जातक प्राय: सन्यासी होता है . किन्तु केवल ४ या ४ से अधिक ग्रहों के एक साथ होने से संन्यास योग नहीं होता , यदि उन ग्रहों में कोई एक ग्रह बली न हो तो यह योग लागू नहीं होता . तात्पर्य यह है कि उनमें से एक ग्रह का बली होना आवश्यक होता है . यदि वह बली ग्रह अस्त हो तब भी यह योग नहीं होता . ऐसे में वह केवल किसी विरक्त या सन्यासी का अनुयायी होता है. इसी प्रकार यदि प्रवज्याकारक बली ग्रह किसी ग्रह युद्ध में हारा हुआ हो या अन्य ग्रहों की उस पर दृष्टि हो तो ऐसा जातक प्रवज्या ग्रहण करने में उत्साही होता है किन्तु किसी कारणवश उसे दीक्षा नहीं मिल पाती है. पुन: यदि प्रवज्याकारक बली ग्रह किसी ग्रह युद्ध में हारा हुआ हो या अन्य ग्रहों की उस पर दृष्टि न पडती हो तो ऐसा जातक प्रवज्या ग्रहण करने के बाद भी संन्यास को त्याग देता है. प्रवज्याकारक उन ग्रहों में से एक ग्रह के दशमाधिपति होने पर प्रवज्या योग होता है .
..... अत: निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है .
.....१- चार या चार से अधिक ग्रहों का एकत्रित होना .
.....२- उनमें किसी का बली होना .
.....३- वह बली ग्रह अस्त न हो.
.....४- वह बली ग्रह , ग्रह-युद्ध में हारा न हो.
.....५- हारे हुए बली ग्रह पर अन्य ग्रह की दृष्टि न पडती हो.
.....६- उब ग्रहों में से कोई दशमाधिपति होना चाहिए .
.....अब विचार करने योग्य है कि किस ग्रह से कौन सा प्रवज्या योग होगा .
..... सूर्य के प्रवज्याकारक होने से जातक वानप्रस्थ , अग्निसेवी , पर्वत या नदी तीर वासी , सूर्य , गणेश या शक्ति का उपासक और ब्रह्मचारी होता है .कभी कभी ऐसा जातक साधारण जीवन व्यतीत करते हुए परमात्मा के चिंतन में लीन रहता है.
..... चन्द्रमा के प्रवज्याकारक होने से गुरु-सन्यासी , नग्न , कपालधारी , शैव-व्रतावलम्बी होता है. ऐसे सन्यासी को वृद्ध कहा जाता है .
.... मंगल के प्रवज्याकारक होने से शाक्य ( बौद्ध मतावलंबी ) गेरुआ वस्त्रधारी , जितेन्द्रिय , भिक्षा वृत्ति वाला सन्यासी होता है.
.....बुध के प्रवज्याकारक होने से जीवक ( सपेरा सांप का तमाशा दिखाने वाला ) , गप्पी , कपटी , तांत्रिक या विष्णु भक्त होता है .
..... गुरु के प्रवज्याकारक होने से भिक्षुक , दंडी तपस्वी , यज्ञादि कर्मों को करने वाला , धर्म-शास्त्रों के रहस्य खोजने वाला ब्रह्मचारी , और सांख्य शास्त्र का अनुयायी होता है .
..... शुक्र के प्रवज्याकारक होने से चरक ( बहु देश घूमने वाला ) वैष्णव धर्म-परायण ,व्रतादि करने वाला होता है . शुक्र ऐश्वर्य का कारक है , अत: शुक्र के भक्ति स्थान ( पंचम, नवम् , दशम ) से सम्बन्ध रखने से जातक भक्ति द्वारा विभूति प्राप्त करने की चाहत रखने वाला होता है , एवं अर्थ साधना ( लक्ष्मी ) उसका मुख्य लक्ष्य होता है.
..... शनि के प्रवज्याकारक होने से जातक विवस्त्र ( नग्न ) रहने वाला , दिगंबर (नागा) , निर्ग्रन्थ , कठोर तपस्वी और पाखण्ड व्रत का धारण करने वाला होता है .

Friday, June 21, 2013

कोर्स संख्या - ०००१...ज्योतिष की आवश्यक जानकारी

....................कोर्स - ०१...ज्योतिष की आवश्यक जानकारी .....................
सर्वप्रथम आप यह जान ले कि पंचांग किसे कहते है , पंचांग के पांच अंग है, १- तिथि २- वार ,३- नक्षत्र , ४- योग , ५- करण ..इन पांच का जिससे ज्ञान होता है उसे पंचांग कहते है .
..... सम्पूर्ण भचक्र , ३६० अंशों में विभाजित है .
..... ३६० अंश = १२ राशियाँ = २७ नक्षत्र .
..... १ राशि = ३० अंश = सवा दो नक्षत्र = ९ चरण .
..... १ नक्षत्र = ४ चरण = १३ सही १/३ अंश = ८०० कला .
..... १ चरण = ३ सही १/३ अंश = २०० कला , १ अंश =६० कला .
..... १ कला = ६० विकला , १ विकला = ६० प्रतिविकला .
................................समय विभाग .....
..... ६० अनुपल = १ विपल .
..... ६० विपल = १ पल .
..... ढाई पल या ६० सेकेण्ड = १ मिनट .
.... ६० पल = २४ मिनट या १ घटी ( घड़ी).
..... ढाई घटी = १ घंटा .
..... साढ़े सात घटी = ३ घंटे या एक पहर .
..... ८ पहर = ६० घटी या २४ घंटे = एक दिन रात इसे ही अहोरात्र कहते है.
..... १५ अहोरात्र = १ पक्ष .
..... २ पक्ष= १ मास .
.....१२ मास= १ वर्ष .
--------------------------------------------------------------------------------------------------
नौ ग्रह = १- सूर्य , २- चंद्र , ३- मंगल, ४ - बुध , ५- गुरु, ६- शुक्र , ७- शनि , ८- राहू , ९- केतु .
इसके अलावा हर्शल, नेप्च्यून , प्लूटो है मगर भारतीय ज्योतिषी प्राय: इनकी गणना नहीं करते , लेकिन यहाँ इन की भी विवेचना होगी .
--------------------------------------------------------------------------------------------------
.... १२ राशियाँ - १- मेष २- वृष ३- मिथुन ४- कर्क ५- सिंह ६- कन्या ७- तुला ८- वृश्चिक ९- धनु १०- मकर ११- कुम्भ १२- मीन .
--------------------------------------------------------------------------------------------------
..... २७ नक्षत्र -
 १- अश्विनी २- भरणी ३- कृत्तिका ४-रोहिणी ५- मृगशिरा ६- आर्द्रा ७ - पुनर्वसु ८- पुष्य ९ - आश्लेषा १० - मघा ११- पूर्वाफाल्गुनी १२ -उत्तराफाल्गुनी १३ - हस्त १४- चित्रा १५- स्वाती १६ - विशाखा १७ - अनुराधा १८- ज्येष्ठा १९- मूल २०- पूर्वाषाढा २१- उत्तराषाढा २२- श्रवण २३- धनिष्ठा २४ - शतभिषा २५- पूर्वाभाद्रपद २६- उत्तराभाद्रपद २७- रेवती .
....२८ वाँ - अभिजीत होता है लेकिन मुख्य गणना में २७ ही आते है ..अभिजीत का मान उत्तराषाढा नक्षत्र के चौथे चरण से लेकर श्रवण के पहले १५ वें भाग तक रहता है .
-------------------------------------------------------------------------------------------------
....आप सभी लोग ग्रह , नक्षत्र , राशि, को क्रमश: याद कर ले..इतना ध्यान रहे कि इन्हें अपनी उँगलियों के पोरों पर गिन कर याद करे तो बेहतर होगा ..
..... १ उंगली = ३ पोर , ४ उंगली = १२ पोर . और २७ पोर = एक भचक्र या २७ नक्षत्र ..
-----------------------------------------------------------------------------------------------
१- अश्विनी ( कनिष्ठिका १ पोर)
२- भरणी ( कनिष्ठिका २ पोर)
३- कृत्तिका ( कनिष्ठिका ३ पोर)
४-रोहिणी ( अनामिका १ पोर)
५- मृगशिरा ( अनामिका २ पोर)
६- आर्द्रा ( अनामिका ३ पोर)
७ - पुनर्वसु ( मध्यमा १ पोर)
८- पुष्य ( मध्यमा २ पोर)
९ - आश्लेषा ( मध्यमा ३ पोर)
१० - मघा ( तर्जनी १ पोर)
११- पूर्वाफाल्गुनी ( तर्जनी २ पोर)
१२ -उत्तराफाल्गुनी ( तर्जनी ३ पोर)
१३ - हस्त ( कनिष्ठिका १ पोर)
१४- चित्रा ( कनिष्ठिका २ पोर)
१५- स्वाती ( कनिष्ठिका ३ पोर)
१६ - विशाखा ( अनामिका १ पोर)
१७ - अनुराधा ( अनामिका २ पोर)
१८- ज्येष्ठा ( अनामिका ३ पोर)
१९- मूल ( मध्यमा १ पोर)
२०- पूर्वाषाढा ( मध्यमा २ पोर)
२१- उत्तराषाढा ( मध्यमा ३ पोर)
२२- श्रवण ( तर्जनी १ पोर)
२३- धनिष्ठा ( तर्जनी २ पोर)
२४ - शतभिषा ( तर्जनी ३ पोर)
२५- पूर्वाभाद्रपद ( कनिष्ठिका १ पोर)
२६- उत्तराभाद्रपद ( कनिष्ठिका २ पोर)
२७- रेवती ( कनिष्ठिका ३ पोर) .
...नोट - इस प्रकार याद करें ......

Thursday, June 20, 2013

भू पृष्ठ श्री चक्र गृहस्थों के लिए.


           भू पृष्ठ श्री चक्र में स्थिति क्रम से पूजन गृहस्थों के लिए सर्वोत्तम है . श्री यंत्र को पुरश्चरण एवं  इसका दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन , और मार्जन का दशांश कुमारिका भोज कर लेने के पश्चात ,  स्वर्ण पत्र में आजीवन , रजत ( चांदी ) पत्र में ११ वर्ष ताम्र पत्र में २  वर्ष ,  तथा भोज पत्र में ६ माह तक तक इसका प्रभाव  दृष्टिगोचर होता है . श्री विद्यार्णव के अनुसार श्री चक्र यदि स्फटिक पर निर्मित हो तो उपरोक्त विधान करने के बाद सदैव पूजन के योग्य है .

श्री यंत्र रहस्य

श्री यंत्र  पर  शोध पूर्ण विवेचन   
           ' श्री चक्रं शिवयोर्वपु ' , अर्थात श्री यंत्र शिव - शिवा का विग्रह है . ' एका ज्योतिर्भूद द्विधा... ' अर्थात सृष्टि के आरम्भ में अद्वैत प्रकाशस्वरूप एक ज्योति ही दो रूपों में परिणत हुई . जिसके परिणामस्वरूप यह जगत ' जनक जननी मज्ज्गदिदम ....' माता - पिता , शिव -शक्ति के रूप में परिणत हुआ , तत्पश्चात इस जगत का स्वेच्छा से निर्माण करने के लिए उस परम शक्ति में स्फुरण हुआ और सर्व प्रथम " श्री यंत्र " का आविर्भाव हुआ.
          इस चक्र का उद्धार इस प्रकार है -
          बिंदु त्रिकोण वसु कोण  दशारयुग्मं , 
          मन्वस्स्र नागदल संयुत षोडशारम  |
         वृत्तत्रयं च धरणीम् सदनत्रयं   च , 
         श्री चक्रमेवमुदितं पर देवताया:  ||
      श्री चक्र के पूजन में २ आचार प्रसिद्ध हैं , १- समयाचार , २- कौलाचार . इसके विषय में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित ' सौंदर्य लहरी ' की लक्ष्मीधरी टीका में लिखा गया है कि , समयाचार आन्तरिक पूजा ( साधना ) है और कौलाचार बाह्य पूजा  है . 
          श्री चक्र को ' आकाश चक्र ' भी कहते हैं . आकाश के २ भेद हैं , १- दहराकाश तथा २- बाह्याकाश . 
        अत: बाह्याकाश पूजन में , भोज पत्र , स्वर्ण पत्र , रजत पत्र , ताम्र पत्र , स्फटिक आदि पर श्री यंत्र का निर्माण करके उसका पूजन किया जाता है यही कौल पूजन है .
          दहराकाश में हृद व्योम में ही श्री चक्र का पूजन ( साधना ) होता है . यही समयाचार है.
          समयाचार में त्रिकोण ऊर्ध्व मुख होता है , और कौल चक्र में त्रिकोण के मध्य में बिंदु होता है. कौल चक्र में ९ त्रिकोण होते है . इसके बाद दोनों मतों में समानता है , अर्थात ९ त्रिकोण के बाद , अष्ट दल पद्म , षोडश दल पद्म, तथा तीन में रचनाओं और चतुर्द्वार युक्त भूपुर त्रय होता है. यही श्री चक्र का उद्धार है. 
          समयाचार में सदाख्य तत्व की पूजा सहस्त्र दल कमल में ही होती है . बाह्य पीठादि  में नहीं होती . समय मत के अनुयायी योगीश्वर जीवन्मुक्त होकर आत्मलीन हो जाते है . समय मत में पुरश्चरण जप एवं होम आदि की आवश्यकता नहीं होती . समय मत की साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व किसी योग्य साधक ( गुरु ) की शरण ( दीक्षा ) लेना अनिवार्य है . जबकि कौल मत में पुरश्चरण एवं  इसका दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन , और मार्जन का दशांश कुमारिका भोज कर लेने से लाभ होता है .
          श्री विद्यार्णव के अनुसार श्री चक्र निर्माण के ३ प्रकार है . १- मेरु ( कूर्म  ) पृष्ठ , २- कैलाश पृष्ठ ( सुमेरु ) , ३- भू पृष्ठ . मेरु पृष्ठ श्री चक्र में संहार क्रम से पूजन नहीं किया जाता है , केवल सृष्टि क्रम से ही पूजन होता है . संहार पूजन  कैलाश पृष्ठ में उत्तम होता है . भू पृष्ठ में स्थिति क्रम से पूजन किया जाता है. 
          भू पृष्ठ में स्थिति क्रम से पूजन गृहस्थों के लिए सर्वोत्तम है . कैलाश पृष्ठ में संहार पूजन क्रम से पूजन सन्यासियों के लिए , तथा कूर्म पृष्ठ में सृष्टि क्रम से पूजन ब्रह्मचारियों और स्त्रियों के लिए उत्तम माना गया है .
          रत्न सागर के अनुसार श्री यंत्र को पुरश्चरण एवं  इसका दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन , और मार्जन का दशांश कुमारिका भोज कर लेने के पश्चात ,  स्वर्ण पत्र में आजीवन , रजत ( चांदी ) पत्र में ११ वर्ष ताम्र पत्र में २  वर्ष ,  तथा भोज पत्र में ६ माह तक तक इसका प्रभाव  दृष्टिगोचर होता है . श्री विद्यार्णव के अनुसार श्री चक्र यदि स्फटिक पर निर्मित हो तो उपरोक्त विधान करने के बाद सदैव पूजन के योग्य है .
 
 
      .

चेप्टर-000001- ज्योतिष शास्त्र की प्रारम्भिक बाते

.....यहाँ पर ज्योतिष शास्त्र की प्रारम्भिक बाते लिखी जा रही है . आकाश की ओर दृष्टि डालते ही मानव मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि यह ग्रह , नक्षत्र , क्या है, तारे टूट कर क्यों गिरते है . सूर्य प्रतिदिन पूर्व में ही क्यों उदय होता है . मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह जानना चाहता है कि ' क्यों ? कैसे ? क्या हो रहा है ? क्या होगा ? मानव केवल प्रत्यक्ष बातों को जान कर ही संतुष्ट होता बल्कि जिन बातों से प्रत्यक्ष लाभ होने की संभावना नहीं है , उनको जानने के लिए भी उत्सुक रहता है .
..... मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि, मानव की इसी जिज्ञासा ने उसे ज्योतिष शास्त्र के गंभीर रहस्य का उदघाटन करने के लिए प्रेरित किया .
..... ज्योतिष शास्त्र की व्युतपत्ति " ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रं "... अर्थात , सूर्यादि ग्रह और काल का बोध करने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है . इसमें प्रधानत: ग्रह, नक्षत्र , धूमकेतु , आदि ज्योति: पदार्थों का स्वरुप , संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति आदि समस्त घटनाओं का निरूपण एवं इनके संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है.
..... भारतीय ज्योतिष की परिभाषा - भारतीय ज्योतिष की परिभाषा के स्कंध त्रय - १- सिद्धांत, २- होरा , ३- संहिता बाद में शोधोपरांत स्कंध पञ्च- सिद्धांत , होरा, संहिता, प्रश्न और शकुन यह पांच अंग माने गए है .
..... यदि विराट रूप में लिया जाय तो विज्ञान का १- मनोविज्ञान २- जीव विज्ञान ३- पदार्थ ( भौतिक ) विज्ञान , ४- रसायन विज्ञान , ५- चिकित्सा विज्ञान भी इसी के अंतर्भूत है.
.....मनुष्य स्वभाव से ही अन्वेषक प्राणी है , वह सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के साथ अपने जीवन का तादात्म्य स्थापित करना चाहता है , उसकी इसी प्रवृत्ति ने ज्योतिष के साथ जीवन का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया और बाध्य किया .
.....समस्त भारतीय ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शन शास्त्र है यही कारण है कि भारत अन्य प्रकार के ज्ञान को दार्शनिक मापदंड द्वारा मापता है . भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है , इसका कभी नाश नहीं होता , आत्मा केवल कर्मों के अनादि प्रवाह के कारण पर्यायों को बदला करता है .
.....अध्यात्मशास्त्र के अनुसार दृश्य सृष्टि केवल नाम रूप या कर्म रूप ही नहीं है , इस नाम रूपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी , स्वतंत्र और अविनाशी आत्मतत्व है , और प्राणीमात्र के शरीर में रहने वाला यह तत्व नित्य एवं चैतन्य है , केवल कर्म-बंध के कारण वह परतंत्र और विनाशशील दिखाई देता है .
.....वैदिक दर्शन में कर्म के , १- संचित ,२- प्रारब्ध और ३- क्रियमाण यह तीन भेद माने गए हैं . किसी के द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म है , ( चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्म में ) वह सब संचित कहा जाता है . अनेक जन्म जन्मान्तरों के संचित कर्मों को एक साथ भोगना संभव नहीं है , क्योंकि इनसे मिलने वाले फल परस्पर विरोधी होते हैं. अत: इन्हें एक के बाद एक भोगना पडता है . संचित में से जितने कर्मों का फल पहले भोगा जाता है उसे ही प्रारब्ध कहते हैं. यहाँ इतना ध्यान रखें कि , समस्त संचित का नाम प्रारब्ध नहीं है , बल्कि जितने भाग का भोग शुरू हो गया है वह प्रारब्ध है .जो कर्म अभी (वर्तमान ) किया जा रहा है, वह क्रियमाण है .इस प्रकार इन तीन तरह के कर्मों के कारण आत्मा अनेक जन्मों - पर्यायों को धारण कर संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है .
.....आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म-प्रवाह के कारण " लिंग शरीर + कार्मण शरीर और भौतिक स्थूल शरीर का सम्बन्ध है. जब एक स्थान से आत्मा भौतिक शरीर का त्याग करता है तब लिंग शरीर, आत्मा को अन्य स्थूल शरीर की प्राप्ति में सहायक होता है. स्थूल भौतिक शरीर में यह विशेषता है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की स्मृति को खो देता है . इसीलिये हमारे ऋषियों ने प्राकृतिक ज्योतिष के आधार पर कहा है कि , आत्मा मनुष्य के वर्तमान शरीर में रहते हुए भी एक से अधिक जगत के साथ सम्बन्ध रखता है . मनुष्य का भौतिक शरीर मुख्य रूप से , १- ज्योति: ,२- मानसिक ,३- पौद्गलिक ( पौदगलिक) , इन तीन उप शरीरों में विभक्त है . इसमें से ज्योति: नामक उप शरीर एस्ट्रालस बाडी ( Astrals Body) द्वारा नाक्षत्र जगत से , मानसिक उप शरीर द्वारा मानसिक जगत से और पौद्गलिक उप शरीर द्वारा भौतिक जगत से संबद्ध है . अत: मनुष्य प्रत्येक जगत से प्रभावित होता है . मनुष्य अपने भाव , विचार और क्रिया द्वारा प्रत्येक जगत को प्रभावित करता है . मनुष्य के वर्तमान शरीर में ज्ञान , दर्शन , सुख , दुःख , वीर्य आदि अनेक शक्तियों का धारक आत्मा सर्वत्र व्यापक है , तथा शरीर प्रमाण रहने पर भी अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा विभिन्न जगतों में अपना कार्य करता है . हमारे ऋषियों ने व आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा की इस क्रिया की विशेषता के कारण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य और आतंरिक दो भागों में विभक्त किया है .
.....( १ ) बाह्य व्यक्तित्व - वह है जिसने इस भौतिक शरीर के रूप में अवतार लिया है . यह आत्मा की चैतन्य क्रिया की विशेषता के कारण अपने पूर्व जन्म के निश्चित प्रकार के विचार , भाव और क्रियाओं की ओर झुकाव रखता है तथा इस जीवन के अनुभवों के द्वारा इस व्यक्तित्व के विकास में वृद्धि होती है और धीरे धीरे विकसित होकर आंतरिक व्यक्तित्व में मिलने का प्रयास करता है .
.....( २ ) आतंरिक व्यक्तित्व - वह है जो अनेकों बाह्य व्यक्तित्वों की स्मृतियों , अनुभवों और प्रवृत्तियों का संश्लेषण अपने अंदर रखता है .
..... बाह्य और आतंरिक व्यक्तित्व इन दोनों व्यक्तित्व संबंधी चेतना के , ज्योतिष में तीन रूप माने गए हैं. बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप , आतंरिक व्यक्तित्व के इन तीन रूपों से संबद्ध हैं , परन्तु आतंरिक व्यक्तित्व के ये तीन रूप अपनी निजी विशेषता और शक्ति रखते हैं, जिसके कारण मनुष्य के भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक इन तीनों जगतों का संचालन होता है . मनुष्य का अंत:करण इन दोनों व्यक्तित्वों के उपरोक्त तीनों रूपों को मिलाने का कार्य करता है . दूसरे दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि , ये तीनों रूप एक मौलिक अवस्था में आकर्षण और विकर्षण की प्रवृत्ति द्वारा अंत:करण की सहायता से संतुलित रूप को प्राप्त होते हैं. तात्पर्य यह है कि आकर्षण की प्रवृत्ति बाह्य व्यक्तित्व को और विकर्षण की प्रवृत्ति आतंरिक व्यक्तित्व को प्रभावित करती है , और इन दोनों के बीच में रहने वाला अंत:करण इन्हें संतुलन प्रदान करता है . मनुष्य की उन्नति और अवनति इन्हीं दोनों के संतुलन के पलड़े पर ही निर्भर है . .....मानव जीवन के बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप , और आतंरिक व्यक्तित्व के तीन रूप , तथा एक अंत:करण , इन सात के प्रतीक सौर जगत के सात ग्रह माने गए हैं . उपरोक्त सात रूप सभी प्राणियों के एक जैसे नहीं होते हैं, क्योंकि जन्म - जन्मान्तरों के संचित और प्रारब्ध कर्म विभिन्न प्रकार के हैं , अत: प्रतीक रूप ग्रह अपने अपने प्रतिरूप के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की स्थितियाँ प्रकट करते हैं.
..... आधुनिक वैज्ञानिक प्रत्येक वस्तु की आतंरिक रचना सौर-मंडल से मिलती जुलती बताते हैं. उन्होंने परमाणु के सम्बन्ध में अन्वेषण करके बताया है कि , प्रत्येक पदार्थ की सूक्ष्म रचना का आधार परमाणु है . इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि परमाणु की ईंटों को जोड़कर पदार्थ का विशाल महल निष्पन्न होता है, और यह परमाणु सौर जगत के सामान आकार प्रकार वाला है . इसके मध्य में एक धन ( + ) विद्युत का बिंदु है , जिसे केंद्र कहते हैं .इसका व्यास एक इंच के १० लाखवें भाग का भी १० लाखवाँ भाग बताया गया है . परमाणु के जीवन का सार इसी केंद्र में बसता है . इसी केंद्र के चारों ओर अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विद्युत कण चक्कर लगाते रहते हैं , और यह केंद्र वाले धन ( + ) विद्युत कण के साथ मिलने का उपक्रम करते रहते हैं . इस प्रकार के अनंत परमाणुओं के समाहार का एकत्र स्वरुप हमारा शरीर है .
..... भारतीय दर्शन में भी " यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे " का सिद्धांत प्राचीन काल से ही प्रचलित है . कुल मिला कर तात्पर्य है कि , वास्तविक सौर जगत में सूर्य , चंद्र , आदि ग्रहों के भ्रमण करने में जो नियम काम करते हैं , वही नियम प्राणीमात्र के शरीर में स्थित सौर जगत के ग्रहों के भ्रमण करने में भी काम करते हैं . अत: आकाश स्थित ग्रह , शरीर स्थित ग्रहों के प्रतीक हैं. 

Wednesday, June 19, 2013

" मननात् त्रायते इति मन्त्र: "

" मननात् त्रायते इति मन्त्र: " , जिसके मनन से दैहिक , दैविक , और भौतिक त्रय तापों से रक्षा होती है उसे मन्त्र कहते हैं. मन्त्र वांग्मय को ४ भागों में १- वैदिक , २- पौराणिक , ३- आगमशास्त्रीय ( तांत्रिक ) ४- शाबर विभक्त किया गया है.... इसके अतिरिक्त इनके ३ भेद हैं ..१- बीज मन्त्र ,२- मन्त्र , ३- माला मंत्र ( माला मन्त्र जैसे प्रत्यंगिरा ) .... मन्त्र योग संहिता के अनुसार १- गुरु बीज ,,२ - शक्ति बीज , ३ - रमा बीज , ४ - काम बीज , ५ - तेज बीज ,६ -योग बीज , ७- शक्ति बीज , ८- रक्षा बीज ..... तांत्रिक मन्त्रों में ५१ वर्ण लिए गए है . इसी आधार पर ५१ शक्तिपीठ भी हैं. मन्त्रों में विशेष रूप से ६ बातों पर महत्व दिया गया है . १- छंद , २- ऋषि , ३- देवता , ४- बीज , ५- कीलक , ६- शक्ति ...मंत्र के इन ६ रहस्यों को ध्यान में रख कर ही किसी मन्त्र की साधना में प्रवृत्त होना चाहिए . इसके अतिरिक्त नपुंसक मन्त्र आदि भी कई भेद है .

मानव जीवन के लिए ज्योतिष आवश्यक क्यों ?

मानव जीवन और ज्योतिष का अभिन्न सम्बन्ध है , ज्योतिष विज्ञान का एकमात्र लक्ष्य मानव की आत्मा का विकास करके , उसे परम तत्व में निहित कर देना , या दूसरे शब्दों , मानव को दैहिक , दैविक , भौतिक इन त्रय तापों से रक्षित करना . दर्शन , सांख्य , विज्ञान आदि सभी का एक मात्र ध्येय विश्व की गूढ़ पहेली को सुलझाना एवं मानव जीवन को सामर्थ्यवान व सुखमय बनाना है...ज्योतिष भी विज्ञान होने के कारण इस अखिल ब्रह्माण्ड के रहस्य को उजागर करने का प्रयत्न करता है ...मनुष्य का वर्तमान जीवन उसके पूर्व संकल्पों , कामनाओं और कृत्यों का परिणाम है . तथा इस जीवन में वह जैसे कृत्य आदि करता है उसे वैसा ही परिणाम मिलता है ...पूर्ण प्राणमय, मनोमय, प्रकाशरूप , एवं समस्त कामनाओं और विषयों के अधिष्ठान भूत ब्रह्म का साक्षात ज्योतिष विज्ञान के सहयोग से शीघ्र मिलता है ... संक्षिप्त में इसलिए ज्योतिष मानव जीवन के लिए आवश्यक है.....