Thursday, June 20, 2013

चेप्टर-000001- ज्योतिष शास्त्र की प्रारम्भिक बाते

.....यहाँ पर ज्योतिष शास्त्र की प्रारम्भिक बाते लिखी जा रही है . आकाश की ओर दृष्टि डालते ही मानव मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि यह ग्रह , नक्षत्र , क्या है, तारे टूट कर क्यों गिरते है . सूर्य प्रतिदिन पूर्व में ही क्यों उदय होता है . मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह जानना चाहता है कि ' क्यों ? कैसे ? क्या हो रहा है ? क्या होगा ? मानव केवल प्रत्यक्ष बातों को जान कर ही संतुष्ट होता बल्कि जिन बातों से प्रत्यक्ष लाभ होने की संभावना नहीं है , उनको जानने के लिए भी उत्सुक रहता है .
..... मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि, मानव की इसी जिज्ञासा ने उसे ज्योतिष शास्त्र के गंभीर रहस्य का उदघाटन करने के लिए प्रेरित किया .
..... ज्योतिष शास्त्र की व्युतपत्ति " ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रं "... अर्थात , सूर्यादि ग्रह और काल का बोध करने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है . इसमें प्रधानत: ग्रह, नक्षत्र , धूमकेतु , आदि ज्योति: पदार्थों का स्वरुप , संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति आदि समस्त घटनाओं का निरूपण एवं इनके संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है.
..... भारतीय ज्योतिष की परिभाषा - भारतीय ज्योतिष की परिभाषा के स्कंध त्रय - १- सिद्धांत, २- होरा , ३- संहिता बाद में शोधोपरांत स्कंध पञ्च- सिद्धांत , होरा, संहिता, प्रश्न और शकुन यह पांच अंग माने गए है .
..... यदि विराट रूप में लिया जाय तो विज्ञान का १- मनोविज्ञान २- जीव विज्ञान ३- पदार्थ ( भौतिक ) विज्ञान , ४- रसायन विज्ञान , ५- चिकित्सा विज्ञान भी इसी के अंतर्भूत है.
.....मनुष्य स्वभाव से ही अन्वेषक प्राणी है , वह सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के साथ अपने जीवन का तादात्म्य स्थापित करना चाहता है , उसकी इसी प्रवृत्ति ने ज्योतिष के साथ जीवन का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया और बाध्य किया .
.....समस्त भारतीय ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शन शास्त्र है यही कारण है कि भारत अन्य प्रकार के ज्ञान को दार्शनिक मापदंड द्वारा मापता है . भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है , इसका कभी नाश नहीं होता , आत्मा केवल कर्मों के अनादि प्रवाह के कारण पर्यायों को बदला करता है .
.....अध्यात्मशास्त्र के अनुसार दृश्य सृष्टि केवल नाम रूप या कर्म रूप ही नहीं है , इस नाम रूपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी , स्वतंत्र और अविनाशी आत्मतत्व है , और प्राणीमात्र के शरीर में रहने वाला यह तत्व नित्य एवं चैतन्य है , केवल कर्म-बंध के कारण वह परतंत्र और विनाशशील दिखाई देता है .
.....वैदिक दर्शन में कर्म के , १- संचित ,२- प्रारब्ध और ३- क्रियमाण यह तीन भेद माने गए हैं . किसी के द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म है , ( चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्म में ) वह सब संचित कहा जाता है . अनेक जन्म जन्मान्तरों के संचित कर्मों को एक साथ भोगना संभव नहीं है , क्योंकि इनसे मिलने वाले फल परस्पर विरोधी होते हैं. अत: इन्हें एक के बाद एक भोगना पडता है . संचित में से जितने कर्मों का फल पहले भोगा जाता है उसे ही प्रारब्ध कहते हैं. यहाँ इतना ध्यान रखें कि , समस्त संचित का नाम प्रारब्ध नहीं है , बल्कि जितने भाग का भोग शुरू हो गया है वह प्रारब्ध है .जो कर्म अभी (वर्तमान ) किया जा रहा है, वह क्रियमाण है .इस प्रकार इन तीन तरह के कर्मों के कारण आत्मा अनेक जन्मों - पर्यायों को धारण कर संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है .
.....आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म-प्रवाह के कारण " लिंग शरीर + कार्मण शरीर और भौतिक स्थूल शरीर का सम्बन्ध है. जब एक स्थान से आत्मा भौतिक शरीर का त्याग करता है तब लिंग शरीर, आत्मा को अन्य स्थूल शरीर की प्राप्ति में सहायक होता है. स्थूल भौतिक शरीर में यह विशेषता है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की स्मृति को खो देता है . इसीलिये हमारे ऋषियों ने प्राकृतिक ज्योतिष के आधार पर कहा है कि , आत्मा मनुष्य के वर्तमान शरीर में रहते हुए भी एक से अधिक जगत के साथ सम्बन्ध रखता है . मनुष्य का भौतिक शरीर मुख्य रूप से , १- ज्योति: ,२- मानसिक ,३- पौद्गलिक ( पौदगलिक) , इन तीन उप शरीरों में विभक्त है . इसमें से ज्योति: नामक उप शरीर एस्ट्रालस बाडी ( Astrals Body) द्वारा नाक्षत्र जगत से , मानसिक उप शरीर द्वारा मानसिक जगत से और पौद्गलिक उप शरीर द्वारा भौतिक जगत से संबद्ध है . अत: मनुष्य प्रत्येक जगत से प्रभावित होता है . मनुष्य अपने भाव , विचार और क्रिया द्वारा प्रत्येक जगत को प्रभावित करता है . मनुष्य के वर्तमान शरीर में ज्ञान , दर्शन , सुख , दुःख , वीर्य आदि अनेक शक्तियों का धारक आत्मा सर्वत्र व्यापक है , तथा शरीर प्रमाण रहने पर भी अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा विभिन्न जगतों में अपना कार्य करता है . हमारे ऋषियों ने व आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा की इस क्रिया की विशेषता के कारण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य और आतंरिक दो भागों में विभक्त किया है .
.....( १ ) बाह्य व्यक्तित्व - वह है जिसने इस भौतिक शरीर के रूप में अवतार लिया है . यह आत्मा की चैतन्य क्रिया की विशेषता के कारण अपने पूर्व जन्म के निश्चित प्रकार के विचार , भाव और क्रियाओं की ओर झुकाव रखता है तथा इस जीवन के अनुभवों के द्वारा इस व्यक्तित्व के विकास में वृद्धि होती है और धीरे धीरे विकसित होकर आंतरिक व्यक्तित्व में मिलने का प्रयास करता है .
.....( २ ) आतंरिक व्यक्तित्व - वह है जो अनेकों बाह्य व्यक्तित्वों की स्मृतियों , अनुभवों और प्रवृत्तियों का संश्लेषण अपने अंदर रखता है .
..... बाह्य और आतंरिक व्यक्तित्व इन दोनों व्यक्तित्व संबंधी चेतना के , ज्योतिष में तीन रूप माने गए हैं. बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप , आतंरिक व्यक्तित्व के इन तीन रूपों से संबद्ध हैं , परन्तु आतंरिक व्यक्तित्व के ये तीन रूप अपनी निजी विशेषता और शक्ति रखते हैं, जिसके कारण मनुष्य के भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक इन तीनों जगतों का संचालन होता है . मनुष्य का अंत:करण इन दोनों व्यक्तित्वों के उपरोक्त तीनों रूपों को मिलाने का कार्य करता है . दूसरे दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि , ये तीनों रूप एक मौलिक अवस्था में आकर्षण और विकर्षण की प्रवृत्ति द्वारा अंत:करण की सहायता से संतुलित रूप को प्राप्त होते हैं. तात्पर्य यह है कि आकर्षण की प्रवृत्ति बाह्य व्यक्तित्व को और विकर्षण की प्रवृत्ति आतंरिक व्यक्तित्व को प्रभावित करती है , और इन दोनों के बीच में रहने वाला अंत:करण इन्हें संतुलन प्रदान करता है . मनुष्य की उन्नति और अवनति इन्हीं दोनों के संतुलन के पलड़े पर ही निर्भर है . .....मानव जीवन के बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप , और आतंरिक व्यक्तित्व के तीन रूप , तथा एक अंत:करण , इन सात के प्रतीक सौर जगत के सात ग्रह माने गए हैं . उपरोक्त सात रूप सभी प्राणियों के एक जैसे नहीं होते हैं, क्योंकि जन्म - जन्मान्तरों के संचित और प्रारब्ध कर्म विभिन्न प्रकार के हैं , अत: प्रतीक रूप ग्रह अपने अपने प्रतिरूप के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की स्थितियाँ प्रकट करते हैं.
..... आधुनिक वैज्ञानिक प्रत्येक वस्तु की आतंरिक रचना सौर-मंडल से मिलती जुलती बताते हैं. उन्होंने परमाणु के सम्बन्ध में अन्वेषण करके बताया है कि , प्रत्येक पदार्थ की सूक्ष्म रचना का आधार परमाणु है . इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि परमाणु की ईंटों को जोड़कर पदार्थ का विशाल महल निष्पन्न होता है, और यह परमाणु सौर जगत के सामान आकार प्रकार वाला है . इसके मध्य में एक धन ( + ) विद्युत का बिंदु है , जिसे केंद्र कहते हैं .इसका व्यास एक इंच के १० लाखवें भाग का भी १० लाखवाँ भाग बताया गया है . परमाणु के जीवन का सार इसी केंद्र में बसता है . इसी केंद्र के चारों ओर अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विद्युत कण चक्कर लगाते रहते हैं , और यह केंद्र वाले धन ( + ) विद्युत कण के साथ मिलने का उपक्रम करते रहते हैं . इस प्रकार के अनंत परमाणुओं के समाहार का एकत्र स्वरुप हमारा शरीर है .
..... भारतीय दर्शन में भी " यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे " का सिद्धांत प्राचीन काल से ही प्रचलित है . कुल मिला कर तात्पर्य है कि , वास्तविक सौर जगत में सूर्य , चंद्र , आदि ग्रहों के भ्रमण करने में जो नियम काम करते हैं , वही नियम प्राणीमात्र के शरीर में स्थित सौर जगत के ग्रहों के भ्रमण करने में भी काम करते हैं . अत: आकाश स्थित ग्रह , शरीर स्थित ग्रहों के प्रतीक हैं. 

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