श्री यंत्र पर शोध पूर्ण विवेचन
' श्री चक्रं शिवयोर्वपु ' , अर्थात श्री यंत्र शिव - शिवा का विग्रह है . ' एका ज्योतिर्भूद द्विधा... ' अर्थात सृष्टि के आरम्भ में अद्वैत प्रकाशस्वरूप एक ज्योति ही दो रूपों में परिणत हुई . जिसके परिणामस्वरूप यह जगत ' जनक जननी मज्ज्गदिदम ....' माता - पिता , शिव -शक्ति के रूप में परिणत हुआ , तत्पश्चात इस जगत का स्वेच्छा से निर्माण करने के लिए उस परम शक्ति में स्फुरण हुआ और सर्व प्रथम " श्री यंत्र " का आविर्भाव हुआ.
इस चक्र का उद्धार इस प्रकार है -
बिंदु त्रिकोण वसु कोण दशारयुग्मं ,
मन्वस्स्र नागदल संयुत षोडशारम |
मन्वस्स्र नागदल संयुत षोडशारम |
वृत्तत्रयं च धरणीम् सदनत्रयं च ,
श्री चक्रमेवमुदितं पर देवताया: ||
श्री चक्रमेवमुदितं पर देवताया: ||
श्री चक्र के पूजन में २ आचार प्रसिद्ध हैं , १- समयाचार , २- कौलाचार . इसके विषय में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित ' सौंदर्य लहरी ' की लक्ष्मीधरी टीका में लिखा गया है कि , समयाचार आन्तरिक पूजा ( साधना ) है और कौलाचार बाह्य पूजा है .
श्री चक्र को ' आकाश चक्र ' भी कहते हैं . आकाश के २ भेद हैं , १- दहराकाश तथा २- बाह्याकाश .
अत: बाह्याकाश पूजन में , भोज पत्र , स्वर्ण पत्र , रजत पत्र , ताम्र पत्र , स्फटिक आदि पर श्री यंत्र का निर्माण करके उसका पूजन किया जाता है यही कौल पूजन है .
दहराकाश में हृद व्योम में ही श्री चक्र का पूजन ( साधना ) होता है . यही समयाचार है.
समयाचार में त्रिकोण ऊर्ध्व मुख होता है , और कौल चक्र में त्रिकोण के मध्य में बिंदु होता है. कौल चक्र में ९ त्रिकोण होते है . इसके बाद दोनों मतों में समानता है , अर्थात ९ त्रिकोण के बाद , अष्ट दल पद्म , षोडश दल पद्म, तथा तीन में रचनाओं और चतुर्द्वार युक्त भूपुर त्रय होता है. यही श्री चक्र का उद्धार है.
समयाचार में सदाख्य तत्व की पूजा सहस्त्र दल कमल में ही होती है . बाह्य पीठादि में नहीं होती . समय मत के अनुयायी योगीश्वर जीवन्मुक्त होकर आत्मलीन हो जाते है . समय मत में पुरश्चरण जप एवं होम आदि की आवश्यकता नहीं होती . समय मत की साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व किसी योग्य साधक ( गुरु ) की शरण ( दीक्षा ) लेना अनिवार्य है . जबकि कौल मत में पुरश्चरण एवं इसका दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन , और मार्जन का दशांश कुमारिका भोज कर लेने से लाभ होता है .
श्री विद्यार्णव के अनुसार श्री चक्र निर्माण के ३ प्रकार है . १- मेरु ( कूर्म ) पृष्ठ , २- कैलाश पृष्ठ ( सुमेरु ) , ३- भू पृष्ठ . मेरु पृष्ठ श्री चक्र में संहार क्रम से पूजन नहीं किया जाता है , केवल सृष्टि क्रम से ही पूजन होता है . संहार पूजन कैलाश पृष्ठ में उत्तम होता है . भू पृष्ठ में स्थिति क्रम से पूजन किया जाता है.
भू पृष्ठ में स्थिति क्रम से पूजन गृहस्थों के लिए सर्वोत्तम है . कैलाश पृष्ठ में संहार पूजन क्रम से पूजन सन्यासियों के लिए , तथा कूर्म पृष्ठ में सृष्टि क्रम से पूजन ब्रह्मचारियों और स्त्रियों के लिए उत्तम माना गया है .
रत्न सागर के अनुसार श्री यंत्र को पुरश्चरण एवं इसका दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन , और मार्जन का दशांश कुमारिका भोज कर लेने के पश्चात , स्वर्ण पत्र में आजीवन , रजत ( चांदी ) पत्र में ११ वर्ष ताम्र पत्र में २ वर्ष , तथा भोज पत्र में ६ माह तक तक इसका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है . श्री विद्यार्णव के अनुसार श्री चक्र यदि स्फटिक पर निर्मित हो तो उपरोक्त विधान करने के बाद सदैव पूजन के योग्य है .
.
No comments:
Post a Comment