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जय हो
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.....................प्रवज्या ( सन्यास ) योग .....................
.....प्रवज्या योग तब होता है , जब ४, ५, ६ या सातों ग्रह एकत्रित होकर
किसी स्थान में बैठे हो, तो ऐसा जातक प्राय: सन्यासी होता है . किन्तु केवल
४ या ४ से अधिक ग्रहों के एक साथ होने से संन्यास योग नहीं होता , यदि उन
ग्रहों में कोई एक ग्रह बली न हो तो यह योग लागू नहीं होता . तात्पर्य यह
है कि उनमें से एक ग्रह का बली होना आवश्यक होता है . यदि वह बली ग्रह अस्त
हो तब भी यह योग नहीं होता . ऐसे में वह केवल किसी विरक्त या सन्यासी का
अनुयायी होता है. इसी प्रकार यदि प्रवज्याकारक बली ग्रह किसी ग्रह युद्ध
में हारा हुआ हो या अन्य ग्रहों की उस पर दृष्टि हो तो ऐसा जातक प्रवज्या
ग्रहण करने में उत्साही होता है किन्तु किसी कारणवश उसे दीक्षा नहीं मिल
पाती है. पुन: यदि प्रवज्याकारक बली ग्रह किसी ग्रह युद्ध में हारा हुआ हो
या अन्य ग्रहों की उस पर दृष्टि न पडती
हो तो ऐसा जातक प्रवज्या ग्रहण करने के बाद भी संन्यास को त्याग देता है.
प्रवज्याकारक उन ग्रहों में से एक ग्रह के दशमाधिपति होने पर प्रवज्या योग
होता है . ..... अत: निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है . .....१- चार या चार से अधिक ग्रहों का एकत्रित होना . .....२- उनमें किसी का बली होना . .....३- वह बली ग्रह अस्त न हो. .....४- वह बली ग्रह , ग्रह-युद्ध में हारा न हो. .....५- हारे हुए बली ग्रह पर अन्य ग्रह की दृष्टि न पडती हो. .....६- उब ग्रहों में से कोई दशमाधिपति होना चाहिए . .....अब विचार करने योग्य है कि किस ग्रह से कौन सा प्रवज्या योग होगा .
..... सूर्य के प्रवज्याकारक होने से जातक वानप्रस्थ , अग्निसेवी , पर्वत
या नदी तीर वासी , सूर्य , गणेश या शक्ति का उपासक और ब्रह्मचारी होता है
.कभी कभी ऐसा जातक साधारण जीवन व्यतीत करते हुए परमात्मा के चिंतन में लीन
रहता है. ..... चन्द्रमा के प्रवज्याकारक होने से गुरु-सन्यासी , नग्न ,
कपालधारी , शैव-व्रतावलम्बी होता है. ऐसे सन्यासी को वृद्ध कहा जाता है . .... मंगल के प्रवज्याकारक होने से शाक्य ( बौद्ध मतावलंबी ) गेरुआ वस्त्रधारी , जितेन्द्रिय , भिक्षा वृत्ति वाला सन्यासी होता है. .....बुध के प्रवज्याकारक होने से जीवक ( सपेरा सांप का तमाशा दिखाने वाला ) , गप्पी , कपटी , तांत्रिक या विष्णु भक्त होता है .
..... गुरु के प्रवज्याकारक होने से भिक्षुक , दंडी तपस्वी , यज्ञादि
कर्मों को करने वाला , धर्म-शास्त्रों के रहस्य खोजने वाला ब्रह्मचारी , और
सांख्य शास्त्र का अनुयायी होता है . ..... शुक्र के प्रवज्याकारक
होने से चरक ( बहु देश घूमने वाला ) वैष्णव धर्म-परायण ,व्रतादि करने वाला
होता है . शुक्र ऐश्वर्य का कारक है , अत: शुक्र के भक्ति स्थान ( पंचम,
नवम् , दशम ) से सम्बन्ध रखने से जातक भक्ति द्वारा विभूति प्राप्त करने की
चाहत रखने वाला होता है , एवं अर्थ साधना ( लक्ष्मी ) उसका मुख्य लक्ष्य
होता है. ..... शनि के प्रवज्याकारक होने से जातक विवस्त्र ( नग्न )
रहने वाला , दिगंबर (नागा) , निर्ग्रन्थ , कठोर तपस्वी और पाखण्ड व्रत का
धारण करने वाला होता है .
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