Monday, September 9, 2013

" श्री श्वेतार्क गणपति '


........... श्री मन्महा गणाधिपतये नम: ...........
..... हे गणपति ! आपका हम स्वकार्य सिद्धि हेतु आव्हान करते हैं. आप सबकी प्रार्थना सुनने वाले हैं. जितने संसार के गण हैं आप सबके स्वामी हैं . विद्वानों के भी आप विद्वान् हैं. आप सब ब्रह्मवेत्ताओं में ज्येष्ठ हैं. आप हमारे ह्रदय रूपी आसन में आकर विराजमान हो....
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.....भगवान् गजानन की मान्यता भारतवर्ष में प्राचीन समय से चली आ रही है , स्मार्त (गृहस्थ ) उपासना में भी श्री गणेश जी की गणना की जाती है . यजुर्वेद में भी ' गणानान्त्वा गणपति हवामहे ...' इत्यादि मन्त्र में गणपति का अर्थ ग्रहण किया गया है , यद्यपि वेद भाष्यकार ' उव्वट महीधर ' ने इस मन्त्र का अर्थ प्रकरणानुसार अश्व किया है , तथापि ' यास्क मुनि ' के कथनानुसार तप से वेद मन्त्रों के अनेकार्थ हो जाते हैं . ऐसा सिद्धांत होने से गणपतिपरक अर्थ की संभावना में कोई संदेह नहीं किया जा सकता .
..... अवैदिक जैन पंथ और बौद्ध पंथ में भी गणेश की मान्यता को स्वीकार किया गया है .
..... बहुत से लोगो का मानना है कि गणेश पूजा अनार्यों से आर्यों में आयी , यह कथन सर्वथा अप्रामाणिक है .
..... नेपाल, तिब्बत , कम्बोडिया , जापान , चीन , मंगोल आदि देशों में भी गणेश प्रतिमाएं मिली है , जिससे गणेश उपासना की व्यापकता सिद्ध होती है , और गणेश का वैज्ञानिक रूप व उपासना क्रम भारतवर्ष से ही इन देशों में गया है , क्योंकि ' मनु जी ' ने कहा है कि ...
..... एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:| स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरंपृथिव्याम सर्व मानवा:||
..... इस देश में पैदा हुए अग्रजन्मा के द्वारा ही संसार के सभी देशों के लोगों ने ज्ञान प्राप्त किया है. इसलिए इस गणेश विज्ञान को अनार्यों से सीखने का कोई प्रमाण नहीं है ...
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----- महाकवि कालीदास ने ' चिदगगन चन्द्रिका ' में श्री गणेश जी के आविर्भाव के सम्बन्ध में लिखा है ......
..... सर्वप्रथम चिद्शक्ति से स्फुरित होता हुआ क्षीर समुद्र पौर्णमासी चन्द्र के समान जो निस्तरंग स्फुरित हो रहा है , जहां कि इस चिद्व्योम में नादतत्व का फैलाव हो रहा है , जो तेजोमयी बिन्दुमाला धारण किये हुए हैं , आदि शिवशक्ति का स्पंद जिनका स्वरुप है , ॐ कार रूपी शुण्ड से जिनकी क्रियाशक्ति प्रकट हो रही है , दन्त जिनके मुख से निकला हुआ है , शक्ति से उत्पन्न होने वाले जो गणेश है वे हमारे क्लेशों को दूर करें...
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..... आप सभी मित्रों के लिए यहाँ पर " श्री श्वेतार्क गणपति ' की दो दुर्लभ प्रतिमाएं दर्शनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ , इसमें से एक प्रतिमा में अभिमंत्रित होते समय ही एक ' नागदेव' आकर लिपट गए थे ...मानो आदिदेव महादेव ने स्वयं अपने गण को आशीर्वाद देने भेज दिया हो....दर्शन लाभ करें ...श्री महागणपति आपकी मनोकामनाएं पूर्ण करें...
..... आपका ' विजय '

Saturday, September 7, 2013

यह कितनी विडम्बना है ...

..... मेरे आत्मीय मित्रों ! जय महाशक्ति ...
..... आज आपसे एक बहुत गंभीर चर्चा करने जा रहा हूँ , पिछले कुछ वर्षों से धर्म और ज्योतिष के क्षेत्र में कुछ ऐसा बदलाव आया है जिसके कारण इन विषयों से आम जनमानस का विश्वास कम होने लगा है ...
..... अक्सर फेसबुक पर भी यन्त्र , मंत्र , तंत्र , ज्योतिष , पराविज्ञान , काला जादू , लालकिताब , रावण संहिता , भृगुसंहिता आदि अत्यंत गूढ़ विषयों पर भी आधी अधूरी जानकारी देखने को मिलती है....
..... भूत , प्रेत , पिशाच , जिन्न , चुड़ैल , बैताल , ब्रह्म राक्षस , योगिनी , डाकिनी , शाकिनी आदि के विषय में भी भ्रान्तिपरक बातें आम जन जीवन में सुनने देखने को मिलती है . इन्हीं बातो को हौव्वा बना कर आम जनमानस को डरा कर उसका शोषण करने का सर्वत्र प्रयास होता रहता है ....जबकि इसकी हकीकत कुछ और है ....
..... यद्यपि इस तरह का कार्य करने वाले इन विषयों के कदापि जानकार नहीं होते , किन्तु फिर भी अपने वाणी और क्रियाकलापों से ऐसे लोग आम जनमानस का शोषण करने में कामयाब हो ही जाते है ....
..... कुछ बड़े बाबा टाइप जीवधारी भी काला जादू , या तंत्र मन्त्र की आड़ में अपना वर्चस्व बनाने में कामयाब होते है ...
..... एक दिन ' श्री पुष्कर व्यास जी' ने एक प्रश्न फेसबुक पर किया था कि , ' बृहस्पति ' का एक नाम ' जीव' भी है , यह नाम कैसे और कब पडा , इस प्रश्न के उत्तर कई ज्योतिषी बंधुओं ने स्वविवेक से दिए , किन्तु उनमें से एक भी उत्तर सही नहीं था ....? यह कितनी विडम्बना है ...
..... अब ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इस आभासीय और वास्तविक जगत में यह कैसे जाना जाय कि जो ज्योतिषीगण इसका व्यावसायिक उपयोग कर रहे हैं , उन्हें ज्योतिष जैसे गूढ़ विषय का वास्तविक ज्ञान है भी या नहीं ...
..... जिन मन्त्रों के विषय में लिख रहे है उन मन्त्रों का वैज्ञानिक रूप क्या है , और वह कौन सी विधियां है जिनसे मन्त्र प्रभावशाली हो कर अपना असर दिखाते हैं...क्या हर मन्त्र हर व्यक्ति को लाभ करेगा ? क्या इसका कोई रास्ता निकाला जा सकता है ...? क्या किसी पुस्तक से पढ़कर इन मन्त्रों का प्रयोग किया जाना उचित है ? बहुत से प्रश्न है ...यह एक महत्वपूर्ण विषय है ....
..... ..... सोशल मीडिया अब काफी ताकतवर हो चुका है , मैं सोच रहा हूँ कि इसी के जरिये मैं आम जनमानस और अपने मित्रों को इन विषयों की वास्तविकता बताऊँ , ताकि वे किसी के द्वारा गुमराह न किये जा सके , और अपने उत्थान के लिए स्वत: वे ऐसे आसान उपाय और उनकी विधियां जान सके , जिससे वास्तव में उनके जीवन में सही मार्गदर्शन हो सके ...और वह अपना आत्मिक , मानसिक , आर्थिक उत्थान स्वयं कर सकें ...
..... मेरे आत्मीय मित्रों क्या उचित रहेगा ? क्या मुझे ऐसा करना चाहिए...? आपकी क्या सलाह है ....?

Tuesday, September 3, 2013

......... महापुराण .........

..... मेरे आत्मीय बंधुओं ! यथोचित अभिवादन ...
..... फेस बुक पर बहुत समय से यह विवाद चला आ रहा है कि ' विष्णु ( श्री मद्भागवत ) भागवत महा पुराण है या देवी भागवत ...? वैष्णव श्री मद्भागवत को महापुराण और शाक्त देवी भागवत को महापुराण मानते है ... दोनों में एक के मत से एक महापुराण और दूसरा उप पुराण है ...वास्तव में पुराणों की गणना में कहीं भी इस तरह का उल्लेख नहीं है . गणना में केवल ' भागवत ' शब्द आया है ...
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......... महापुराण .........
अठारह पुराणों को बताने के लिए यह श्लोक है ...
.....मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं व चतुष्टकम | अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक पृथक ||
..... अर्थात -मद्वयं = मार्कंडेय , मत्स्य . भद्वयं = भागवत , भविष्य . चैव ब्रत्रयं = ब्रह्माण्ड , ब्रह्म , ब्रह्मवैवर्त . व चतुष्टकम = विष्णु , वामन, वाराह , वायु ( शिव ) | अनापलिंगकूस्कानि = अग्नि , नारद , पद्म , लिंग , गरुड़ , कूर्म , स्कन्द .पुराणानि पृथक पृथक || यह अठारह महापुराण है ...
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.....उप पुराण....
..... १- आदि पुराण , २- नरसिंह पुराण, ३- स्कन्द पुराण , ४- शिवधर्म पुराण , ५- दुर्वासा पुराण , ६- नारदोक्त पुराण , ७- कपिल पुराण , ८- वामन पुराण , ९- औशनस पुराण , १०- ब्रह्माण्ड पुराण , ११- वरुण पुराण , १२- कालिका पुराण , १३- माहेश्वर पुराण , १४ - साम्ब पुराण , १५- सौर पुराण , १६- पाराशर पुराण , १७ - मारीच पुराण , १८- भास्कर पुराण ...
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..... औप पुराण .....
..... १- सनत्कुमार पुराण , २- बृहन्नारदीय पुराण , ३- आदित्य पुराण , ४- मानव पुराण , ५- नंदिकेश्वर पुराण , ६- कौर्म पुराण , ७- भागवत पुराण , ८- वशिष्ठ पुराण , ९- भार्गव पुराण , १०- मुदगल पुराण , ११- कल्कि पुराण , १२-देवी पुराण , १३- महाभागवत पुराण , १४- बृहत्धर्म पुराण , १५- परानंद पुराण , १६- पशुपति पुराण , १७- वन्हि पुराण , १८- हरिवंश पुराण ...

Tuesday, August 27, 2013

एक बार प्रेम से बोलिए आनंदकंद भगवान श्री कृष्ण चंद की जय

......... एक बार प्रेम से बोलिए आनंदकंद भगवान श्री कृष्ण चंद की जय.......
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..... हाथी घोड़ा पालकी , जय कन्हैया लाल की |
..... नन्द के घर आनंद भयो, जय बोलो गोपाल की ||
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.....आओ चली मथुरा नगरिया , जन्मे हैं कृष्ण संवरिया ||
..... अष्टमी तिथि रही , बुध शुभ दिनवा | रोहिणी नखत लागे भादों का महिनवा ||
..... रिमझिम बरसे बदरिया , जन्मे हैं कृष्ण संवरिया ||
..... पहारू सब सोवन लागे, खुलिगे किंवरिया | खुलि गइली बेडी और खुली हथकड़ियाँ ||
..... भइली भयावन अंधेरिया , जन्मे हैं कृष्ण संवरिया ||
..... लइके वसुदेव चले गोकुला नगरिया | जमुना उमड़ रही , हहरे लहरिया ||
..... पांवन परसे घटि गए लहरिया , जन्मे हैं कृष्ण संवरिया ||
..... घटि गईले जमुना जी , पहुंचे नगरिया | यशुदा के पसवा में रखले कन्हैया ||
..... कन्या लईके पकडे डगरिया , जन्मे हैं कृष्ण संवरिया ||
..... नन्द भवन जब रोइले कन्हैया | कहाँ कहाँ शब्द सुने यशुदा मैया ||
.... लगि गइले भीड़ दुवरिया , जन्मे हैं कृष्ण संवरिया ||
..... दर्शनवा के सुनि नर मुनि अउले | हरि जी के भक्त सब मंगल गउले ||
..... काहे नहीं लेहला खबरिया जन्मे हैं कृष्ण संवरिया ||
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..... नोट - सौभाग्यवश , इस वर्ष जन्माष्टमी के व्रतपर्व पर, मास ( भाद्रपद ) तिथि (अष्टमी ) दिन ( बुधवार ) नक्षत्र ( रोहिणी ) का अद्भुत संयोग है ... सोने में सुहागा यह है कि काशी के समयानुसार आज रात्रि को १० बजकर १९ मिनट से लेकर १२ बजकर १६ मिनट तक ' वृष' लग्न का समावेश रहेगा , उल्लेखनीय है कि कृष्ण जी का जन्म रात्री १२ बजे ' वृष ' लग्न में ही हुआ था ...अत: यह पावन त्यौहार अति शुभ व महत्वपूर्ण हो गया है .....
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..... मेरे आत्मीय बंधुओं ! आप सभी को मेरी ओर से ' श्री कृष्ण जन्माष्टमी ' की शुभ कामनाएँ ...योगीश्वर श्री कृष्ण आप सबकी मनोकामनाओं को पूर्ण करें , आपका जीवन सपरिवार उल्लासमय रहे , प्रभु की कृपा आप पर सदैव बरसती रहे ....
......... एक बार प्रेम से बोलिए वृन्दावन बिहारी लाल  की जय.......

Saturday, August 24, 2013

..... गुलाब की मौन भाषा .....

..... गुलाब की मौन भाषा  .....
..... मेरे आत्मीय मित्रों ! यथोचित अभिवादन ....
..... ' गुलाब ' को देख कर सबका मन प्रसन्नता से प्रफुल्लित हो जाता है , क्या आप जानते हैं ऐसा क्यूँ होता है. वैज्ञानिक शोध के अनुसार गुलाब में यह विशेष खुशबू एक तत्व ' फिनाइल थाइलेमाइन ' के कारण होती है . जो की हमारे शरीर को सुखद अहसास करने वाले हार्मोन ' बीटा एंडोर्फिन ' को सकारात्मक रूप से प्रभावित करती है ...इसीलिये कहा जाता है कि , जब मन उदास हो गुलाब सूंघे . गुलाब ' रोजियेसी ' प्रजाति का सदस्य है . वनस्पति विज्ञान में इसे ' रोजा डेमासेना ' के नाम से जाना जाता है .....
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..... ' गुलाब ' की अपनी एक मौन भाषा भी है , जो इसके रंग , रूप से व्यक्त होती है ...
..... १- लाल अधखिला गुलाब कहता है ...मैं तुमसे प्यार करता हूँ...
..... २- सफ़ेद गुलाब कहता है ... हमारा प्यार पवित्र है ...
..... ३- लाल पूरा खिला गुलाब कहता है ... आप बहुत खूबसूरत हैं...
..... ४- लाल और सफ़ेद गुलाब एकसाथ कहता है ...हम एक है ...एकता का प्रतीक ...
..... ५- एक पूरे खिले गुलाब के साथ दो कलियाँ कहती हैं...हम सुरक्षा देंगे ...
..... ६- सफ़ेद गुलाब की बंद कली कहती है ...अभी आप बहुत छोटे हैं प्यार करने के लिए ...
..... ७- पीला गुलाब संशय व्यक्त करता है .... मैं तुम्हें प्यार करता हूँ , पर तुम्हारे दिल में मेरे लिया क्या है , मैं नहीं समझ पा रहा ....
..... ८- अगर गुलाब की टहनी में काँटों के अलावा एक भी पत्ती न हो तो आशय है ...यहाँ कुछ भी नहीं है , न डर न आशा , तुम्हारी ख़ूबसूरती और मधुरता में मेरी चेतना खो गयी है .....
..... ९- नारंगी गुलाब कहता है ... मेरा प्यार तुम्हारे लिए अनंत है ...
..... १०- कांटे से भरी लम्बी टहनी पर इठलाती बंद कली ऐलान करती है ...यहाँ डर किसका है ...
..... ११- चार पत्तियों से जुडा गुलाब कहता है ...बेस्ट आफ लक ...

Thursday, August 22, 2013

......... जय श्री योगीश्वर कृष्ण .............


 ......... योग बुद्धि की प्रशंसा .........
......... जय श्री योगीश्वर कृष्ण .............
..... बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
..... तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलं|| ..... गीता अध्याय २| श्लोक ५० ||
..... जो बुद्धियोग चित्त की समता से कर्म करता है , वह अपने पुण्य - पाप दोनों को इसी लोक में छोड़ देता है . इसलिए तू योग की चेष्टा कर ; क्योंकि कामों के बीच में ' योग' अत्यंत बलवान है |
..... जो सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखकर कर्म करता है , उसका चित्त समत्व बुद्धि से शुद्ध  हो जाता है . चित्त के शुद्ध होने पर ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है . ज्ञान से पुण्य-पाप इसी दुनिया में छूट जाते हैं . तात्पर्य यह है कि , चित्त की समता वाला अपने योगबल से पुण्य-पाप दोनों से इसी लोक में पीछा छुडा लेता है . कर्मों के बीच में योग ही करामाती है . क्योंकि जो कर्म बंधन-स्वरुप है , वही जब चित्त की समता -योगबुद्धि से किये जाते हैं, तब वह बंधन छुडाने वाले हो जाते हैं. यानी जो कर्म मनुष्य को संसार-बंधन में फंसाते हैं , वे ही कर्मयोग के बल से , बलवान होकर , मनुष्य के हृदय में ज्ञान जागृत करके , संसार-बंधन से छुडा देते हैं ...इसलिए अर्जुन तू योगी हो ........  
..... खुलासा यह है कि सुख -दुःख और सब प्रकार की लाभ हानि को एक समान समझने वाला मनुष्य , क्या इस लोक और क्या परलोक में , कभी पाप-पुण्य का भागी नहीं होता ; वह जिस प्रकार अच्छे कर्म कर पुण्य की आशा छोड़ देता है ; उसी प्रकार यदि उसके द्वारा कोई बुरा कार्य हो जाय , तो उसका पाप उसे नहीं लगता . इसलिए तुम सुख -दुःख का विचार छोड़ कर , दोनों को एक सा समझो . सुख-दुःख , लाभ-हानि , जय -पराजय आदि को सामान समझना ही 'योग' है . जो इनको समान समझता हुआ कर्म करता है , उसके किये हुए पुण्य-पाप इसी लोक में छूट जाते हैं .

Friday, July 12, 2013

' पूर्ण ब्रह्म ' की सोलह कलाएँ '

..... कहते हैं कि ' पूर्ण ब्रह्म ' की सोलह कलाएँ हैं | उन सोलह कलाओं के नाम इस प्रकार हैं....
..... १- भद्र - भजनीयता.
..... २- समाप्ति - समस्त गुणों की पराकाष्ठा .
..... ३- आभूति - जड़-चेतनात्मक जगत का प्रादुर्भाव .
..... ४- सम्भूति - संरक्षा .
..... ५- भूतं - संहार .
..... ६- सर्वं - परिपूर्णता.
..... ७- रूप- इन्द्रिय-जन्य अनुभूति का आधार .
..... ८- अपरिमित - मन-वाणी -बुद्धि से अगम्य .
..... ९- श्री - आश्रयणीय गुणों का एकमात्र केंद्र .
..... १०- यश- समस्त प्रशंसाओं का एकमात्र पात्र .
..... ११- नाम - समस्त नामों का एकमात्र आधार .
..... १२- उग्र- समस्त चेष्टाओं का एकमात्र केंद्र .
..... १३- सजाता - समस्त शक्तियों का एकमात्र सहज प्रस्थान .
..... १४- पय: - पञ्च महाभूतों के कलात्मक सम्मिश्रण का आवास .
..... १५- महीया - महत्तमा माया का एकमात्र आधार .
..... १६- रस- समाधि-लब्ध आनंदोद्रेक का एकमात्र आवास .
..... यह पूर्ण ब्रह्म की सोलह कलाएँ कही जाती हैं .......

Monday, July 8, 2013

|| शांति पाठ ||

 
 .............................|| शांति पाठ ||...........................
..... ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्त्तु | सह वीर्यम करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै | ..... ॐ शान्ति: ! ॐ शान्ति: !! ॐ शान्ति: !!!
.....व्याख्या - हे परमात्मन् ! आप हम गुरु शिष्य दोनों की साथ साथ सब प्रकार से रक्षा करें , हम दोनों का आप साथ साथ समुचित रूप से पालन पोषण करें , हम दोनों साथ ही साथ सब प्रकार से बल प्राप्त करें , हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजपूर्ण हो - कहीं किसी से हम विद्या में परास्त न हों और हम दोनों जीवन भर परस्पर स्नेह-सूत्र से बंधे रहें , हमारे अंदर परस्पर या अन्य किसी से कभी द्वेष न हो | हे परमात्मन् ! तीनों तापों की निवृत्ति हो |
..................ॐ शान्ति: ! ॐ शान्ति: !! ॐ शान्ति: !!! ..................
..... नोट - यह शान्ति पाठ है , इसका पाठ नित्य प्रात: एवं सायं करने से आत्मबल, तेज बल , और मानसिक बल की वृद्धि होती है | दोनों वेला में भोजन के पूर्व भी इसका पाठ करने से शुभता में वृद्धि होती है |

... व्रतादि निर्णय स्वयं कैसे करें ...

.................. व्रतादि निर्णय स्वयं कैसे करें ..................
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..... मेरे आत्मीय मित्रों ! यथोचित अभिवादन , आम जनमानस , को व्रतादि का निर्णय करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पडता है , यहाँ तक कि पंडित गण एवं ज्योतिषी जन भी कभी कभी असमंजस की स्थिति में पड़ जाते हैं . अत: यहाँ दी गयी विधि का अनुशरण करके आप लोग स्वयं व्रतादि का निर्णय कर सकते हैं . बहुत आसान है.
..... सबसे पहले तो स्मार्त और वैष्णव का अंतर समझ लें , स्मार्त का मतलब है " गृहस्थ " , अर्थात स्मृति के आदेशानुसार अपने समस्त कर्मकांड करने वालों को ' स्मार्त ' कहा जाता है . और वैष्णव का मतलब है वैष्णव सम्प्रदाय के मतावलम्बी, अधिकतर लोग वैष्णव का मतलब सीधे सीधे शाकाहारी (सनातनी ) हिन्दू से लगा लेते हैं , जबकि ऐसा नहीं है यह एक सम्प्रदाय है जिसमें रामानुज संत आदि आते है .
..... ' सर्व कालकृतं मन्ये ' इस सूत्र के अनुसार एक बात जान लें कि , सूर्य ' ब्रह्माण्ड ' की प्राण शक्ति का केंद्र है , और चन्द्रमा ' ब्रह्माण्ड ' की ' मन: शक्ति का सर्वस्व ' . इन दोनों ( सूर्य-चन्द्रमा) भौतिक पिंडों की विभिन्न कक्षाओं में अवस्थिति ही ' तिथि ' शब्द से जानी जाती है . जैसे अमावस्या तिथि को ' चंद्र-पिण्ड' सूर्य की कक्षा में विलीन रहता है , और पूर्णिमा को यह दोनों पिण्ड क्षितिज पर आमने सामने उदित दिखते हुए समान रेखा पर अवस्थित रहते हैं. इसी प्रकार दोनों पक्षों की अष्टमी तिथि को ये अर्ध सम रेखा पर ही अवस्थित रहते हैं. इससे यह सिद्ध होता है कि , सूर्य - चंद्र का आन्तरिक तारतम्य ही 'तिथि' है , और स्थूल तथा सूक्ष्म जगत् पर तिथिजन्य प्रभाव का सन्निपात ही , तत्तत् तिथियों के अधिष्ठाताओं का, उन पर आधिपत्य है , जबकि स्थूल जगत पर भी उक्त पिंडों की अवस्थिति का प्रभाव तत्तत ऋतुओं के रूप में , वर्षा , ग्रीष्म , शीत , एवं इनके गुण , आंधी , तूफ़ान . भू-कम्प , समुद्रीय ज्वार-भाटा , सुनामी , डीन, रीटा , ओलापात , ज्वालामुखी , बाढ़ , मनोरोग , दावानल , और दिग्दाह के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देता है. इसके बावजूद सूक्ष्म जगत् ( दृश्य संसार ) पर उनकी अवस्थिति के प्रभाव को शंका की दृष्टि से देखना पदार्थ विज्ञान से अनभिज्ञ लोगों का ही काम हो सकता है.
..... सनातन ( हिंदुओं के ) शास्त्रों में काल (समय) को प्रधान कारण माना गया है . कोई अनभिज्ञ भले ही 'काल' को निष्क्रिय मान कर उसकी कारणता में संदेह करे , परन्तु वास्तव 'काल' ही - " अस्ति , जायते , वर्द्धते , विपरिणमते , अपक्षीयते और विनश्यति " इन छः प्रकार के मूल विकारों का प्रधान / प्रमुख कारण है . 'काल' का मुख्य उद्भावक 'सूर्य' है और उसके सहकारी उद्भावक अन्य ग्रह-पिण्ड हैं , जिनमें पृथ्वी के अति निकटवर्ती होने के कारण चंद्र-पिण्ड का ' पार्थिव निर्माण काल ' में सर्वोपरि सहयोग है .
..... इसी कारण से सनातनियों (हिन्दुवों) के सभी सकाम ( जो व्रतादि किसी मनोकामना की पूर्ति आदि के लिए किये जाते हैं वे 'सकाम' , और जिन व्रतादि में , 'मुझे कोई कामना नहीं है , मैं तो यूँ ही कर रहा हूँ उसे 'निष्काम /नि:काम ' व्रत कहते हैं ) निर्णय चांद्र-तिथियों से करने का स्पष्ट आदेश हमारे धर्म-शास्त्रों / स्मृतियों में मिलता है .
..... निष्कर्ष - अब इसका सूत्र भी जान लीजिए , चिंता हरण जंत्री , चिंता हरण पंचांग , ठाकुर प्रसाद कैलेण्डर , श्री विश्वनाथ पंचांग, या अन्य जो भी पंचांग हो उसमें सर्व साधारण की सुविधा के लिए वहाँ 'स्मार्त या वैष्णव ' शब्द से उल्लेख किया जाता है . कुल मतलब यह है कि , जहां 'स्मार्त ' लिखा हो वह व्रतादि ही (गृहस्थों- बाल बच्चेदार ) के करने योग्य होता है . जहां वैष्णव का उल्लेख हो वहाँ , दंडी सन्यासी , मठ-मंदिर , महाभागवत , निम्बार्क , चक्रांकित महाभागवत , आश्रम , सरस्वती , आदि के करने योग्य होता है . इनके नाना प्रकार के अखाड़े हैं , अपने अपने रीति-रिवाज हैं , अपनी परम्पराएं हैं .
..... गृहस्थों को ' स्मार्त निर्णय ' ही ग्रहण करना चाहिए , इस प्रकार आप सभी व्रतों का निर्णय कर सकते हैं...

Tuesday, July 2, 2013

.... मंत्र जप रहस्य ....

............................. मंत्र जप रहस्य ............................ ..... जप मन्त्रों का होता है , और मन्त्रों का निर्माण वर्णों की संघटना से होता है . वर्ण का दूसरा नाम है ' अक्षर ' अर्थात जिसका क्षरण न हो , अर्थात अक्षर अनश्वर हैं. वर्ण रूप से ध्वनि हैं. ध्वनि सुनाई भी देती है और नहीं भी सुनाई देती है, क्योंकि मानव के कर्ण यंत्रों की एक सीमा है . ध्वनि एक खास सीमा तक ही सुनाई देती है , जब उस अवस्था से ध्वनि का कंपन कम हो हो जाता है तब वह नहीं सुनाई देती है.
..... अब प्रश्न है कि - ध्वनि उत्पन्न होती है या व्यापक रूप से वह विद्यमान है. उदाहरण किसी घंटे पर चोट करने पर ध्वनि प्रकट होती है, और धीरे धीरे वह कम होती जाती है , और एक बिंदु पर आकर वह इतनी कम हो जाती है कि , लगता है कि वह समाप्त हो गयी , तो क्या घंटे पर चोट देने के पूर्व वह नहीं थी ? और चोट देने के उपरान्त चंद क्षणों में ही वह समाप्त हो गयी, क्या उसका जीवन कुछ क्षणों का ही था ?
..... बात यह है कि अनाहत रूप में ध्वनि सर्वत्र व्याप्त है , चोट देने से केवल कुछ स्पंदन बढ़ जाने के कारण हमारे प्रकृत कानों के सुनने के योग्य बनी थी .
..... इसीलिये आगमशास्त्र में एवं अन्य दर्शनों में भी ध्वनि को अनश्वर माना गया है , एवं शब्द को आकाशात्मक कहा गया है . आकाश की तन्मात्रा शब्द को माना गया है, अर्थात ध्वनि स्वाभाविक रूप से अनाहत अवस्था में विद्यमान है , और इसीलिये शब्द को ब्रह्म माना गया है .
..... ध्वनि ( शब्द ) की चार अवस्थाएँ होती हैं, १- परा , २- पश्यन्ति , ३- मध्यमा , ४- वैखरी .
..... परावस्था वह है जहां ध्वनि मूल रूप में अनाहत अवस्था में विद्यमान है . यही अवस्था समग्र शक्तियों से युक्त है , और सृष्टि में समर्थ है . पश्यन्ति वह अवस्था है जहां ध्वनि से सृष्टि शुरू होती है और साधक उसे देख सकता है . मध्यम अवस्था वह है जहां पश्यन्ति से निकल कर शब्द बन जाते हैं, और उनका अनुभव सहज रूप से किया जा सकता है . वैखरी वह अवस्था है जब शब्द प्रकट हो जाता है और उसे कोई भी सुन सकता है . मानव को वैखरी अवस्था का बोध है जो ध्वनि का सबसे स्थूल रूप है वैखरी से यात्रा करके उत्तरोत्तर विकास करते हुए परा तक की यात्रा की जाती है , जहां साधक को सकल ज्ञान उपलब्ध हो जाते हैं.
..... वर्णों के एक विशेष प्रकार के संघटनों से एक विशेष रूप निर्मित होता है , अथवा मन्त्रों की ध्वनि तरंगों के माध्यम से एक विशेष अवस्था में पहुंचा जा सकता है.
.... वैखरी से जब विशेष यात्रा आरम्भ करते हैं , तो जितनी सूक्ष्मता की ओर बढ़ना संभव है उतना ही ध्वनि तरंग अपना प्रभाव देने में समर्थ होती हैं, अर्थात मंत्र का प्रभाव अनुभव होने लगता है. इसलिए साधना काल में वाचिक की अपेक्षा मानसिक जप श्रेष्ठ माना जाता है . जप सदैव मध्यमा भूमि ( अवस्था ) में होता है , और उसका विकास पश्यन्ति की ओर होना चाहिए . वैखरी का उपयोग केवल अभ्यास काल में होता है . जप के विकसित अवस्था में जप का अभ्यास भी बंद हो जाता है . जप निरंतर अनायास होता रहता है , और जब, जप अनायास होने लगे तब मंत्र की ध्वनि तरंगें संतुलित हो जाती हैं और मंत्र के अनुसार फल देने में समर्थ होती है. यही मंत्र प्रभाव का वास्तविक रहस्य है ...जय महाशक्ति !....

Tuesday, June 25, 2013

.........व्रत और उपवास में भेद.........

                            ...व्रत और उपवास में भेद ... 
..... इस लोक में सनातन धर्म के अनुयायियों के बीच व्रत और उपवास यह दो प्रसिद्ध हैं . यह १- कायिक , २- वाचिक , ३- मानसिक , ४- नित्य , ५- नैमित्तिक , ६- काम्य , ७- एकभुक्त , ८- अयाचित , ९- मितभुक् , १० - चान्द्रायण , ११- प्राजापत्य के रूप में किये जाते हैं .
..... वास्तव में व्रत और उपवास में केवल यह अंतर है कि, व्रत में भोजन किया जा सकता है, किन्तु उपवास में निराहार रहना पडता है.
..... इनके कायिकादि ३ भेद हैं , १- शस्त्राघात , मर्माघात , और कार्य हानि आदिजनित हिंसा के शमन हेतु " कायिक , २- सत्य बोलने और प्राणिमात्र में निर्वैर रहने से " वाचिक", ३- मन को शांत रखने की दृढता हेतु " मानसिक" व्रत किया जाता है . जय महाशक्ति ....

.........प्रवज्या ( सन्यास ) योग.........

.....................प्रवज्या ( सन्यास ) योग ..................... .....प्रवज्या योग तब होता है , जब ४, ५, ६ या सातों ग्रह एकत्रित होकर किसी स्थान में बैठे हो, तो ऐसा जातक प्राय: सन्यासी होता है . किन्तु केवल ४ या ४ से अधिक ग्रहों के एक साथ होने से संन्यास योग नहीं होता , यदि उन ग्रहों में कोई एक ग्रह बली न हो तो यह योग लागू नहीं होता . तात्पर्य यह है कि उनमें से एक ग्रह का बली होना आवश्यक होता है . यदि वह बली ग्रह अस्त हो तब भी यह योग नहीं होता . ऐसे में वह केवल किसी विरक्त या सन्यासी का अनुयायी होता है. इसी प्रकार यदि प्रवज्याकारक बली ग्रह किसी ग्रह युद्ध में हारा हुआ हो या अन्य ग्रहों की उस पर दृष्टि हो तो ऐसा जातक प्रवज्या ग्रहण करने में उत्साही होता है किन्तु किसी कारणवश उसे दीक्षा नहीं मिल पाती है. पुन: यदि प्रवज्याकारक बली ग्रह किसी ग्रह युद्ध में हारा हुआ हो या अन्य ग्रहों की उस पर दृष्टि न पडती हो तो ऐसा जातक प्रवज्या ग्रहण करने के बाद भी संन्यास को त्याग देता है. प्रवज्याकारक उन ग्रहों में से एक ग्रह के दशमाधिपति होने पर प्रवज्या योग होता है .
..... अत: निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है .
.....१- चार या चार से अधिक ग्रहों का एकत्रित होना .
.....२- उनमें किसी का बली होना .
.....३- वह बली ग्रह अस्त न हो.
.....४- वह बली ग्रह , ग्रह-युद्ध में हारा न हो.
.....५- हारे हुए बली ग्रह पर अन्य ग्रह की दृष्टि न पडती हो.
.....६- उब ग्रहों में से कोई दशमाधिपति होना चाहिए .
.....अब विचार करने योग्य है कि किस ग्रह से कौन सा प्रवज्या योग होगा .
..... सूर्य के प्रवज्याकारक होने से जातक वानप्रस्थ , अग्निसेवी , पर्वत या नदी तीर वासी , सूर्य , गणेश या शक्ति का उपासक और ब्रह्मचारी होता है .कभी कभी ऐसा जातक साधारण जीवन व्यतीत करते हुए परमात्मा के चिंतन में लीन रहता है.
..... चन्द्रमा के प्रवज्याकारक होने से गुरु-सन्यासी , नग्न , कपालधारी , शैव-व्रतावलम्बी होता है. ऐसे सन्यासी को वृद्ध कहा जाता है .
.... मंगल के प्रवज्याकारक होने से शाक्य ( बौद्ध मतावलंबी ) गेरुआ वस्त्रधारी , जितेन्द्रिय , भिक्षा वृत्ति वाला सन्यासी होता है.
.....बुध के प्रवज्याकारक होने से जीवक ( सपेरा सांप का तमाशा दिखाने वाला ) , गप्पी , कपटी , तांत्रिक या विष्णु भक्त होता है .
..... गुरु के प्रवज्याकारक होने से भिक्षुक , दंडी तपस्वी , यज्ञादि कर्मों को करने वाला , धर्म-शास्त्रों के रहस्य खोजने वाला ब्रह्मचारी , और सांख्य शास्त्र का अनुयायी होता है .
..... शुक्र के प्रवज्याकारक होने से चरक ( बहु देश घूमने वाला ) वैष्णव धर्म-परायण ,व्रतादि करने वाला होता है . शुक्र ऐश्वर्य का कारक है , अत: शुक्र के भक्ति स्थान ( पंचम, नवम् , दशम ) से सम्बन्ध रखने से जातक भक्ति द्वारा विभूति प्राप्त करने की चाहत रखने वाला होता है , एवं अर्थ साधना ( लक्ष्मी ) उसका मुख्य लक्ष्य होता है.
..... शनि के प्रवज्याकारक होने से जातक विवस्त्र ( नग्न ) रहने वाला , दिगंबर (नागा) , निर्ग्रन्थ , कठोर तपस्वी और पाखण्ड व्रत का धारण करने वाला होता है .

Friday, June 21, 2013

कोर्स संख्या - ०००१...ज्योतिष की आवश्यक जानकारी

....................कोर्स - ०१...ज्योतिष की आवश्यक जानकारी .....................
सर्वप्रथम आप यह जान ले कि पंचांग किसे कहते है , पंचांग के पांच अंग है, १- तिथि २- वार ,३- नक्षत्र , ४- योग , ५- करण ..इन पांच का जिससे ज्ञान होता है उसे पंचांग कहते है .
..... सम्पूर्ण भचक्र , ३६० अंशों में विभाजित है .
..... ३६० अंश = १२ राशियाँ = २७ नक्षत्र .
..... १ राशि = ३० अंश = सवा दो नक्षत्र = ९ चरण .
..... १ नक्षत्र = ४ चरण = १३ सही १/३ अंश = ८०० कला .
..... १ चरण = ३ सही १/३ अंश = २०० कला , १ अंश =६० कला .
..... १ कला = ६० विकला , १ विकला = ६० प्रतिविकला .
................................समय विभाग .....
..... ६० अनुपल = १ विपल .
..... ६० विपल = १ पल .
..... ढाई पल या ६० सेकेण्ड = १ मिनट .
.... ६० पल = २४ मिनट या १ घटी ( घड़ी).
..... ढाई घटी = १ घंटा .
..... साढ़े सात घटी = ३ घंटे या एक पहर .
..... ८ पहर = ६० घटी या २४ घंटे = एक दिन रात इसे ही अहोरात्र कहते है.
..... १५ अहोरात्र = १ पक्ष .
..... २ पक्ष= १ मास .
.....१२ मास= १ वर्ष .
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नौ ग्रह = १- सूर्य , २- चंद्र , ३- मंगल, ४ - बुध , ५- गुरु, ६- शुक्र , ७- शनि , ८- राहू , ९- केतु .
इसके अलावा हर्शल, नेप्च्यून , प्लूटो है मगर भारतीय ज्योतिषी प्राय: इनकी गणना नहीं करते , लेकिन यहाँ इन की भी विवेचना होगी .
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.... १२ राशियाँ - १- मेष २- वृष ३- मिथुन ४- कर्क ५- सिंह ६- कन्या ७- तुला ८- वृश्चिक ९- धनु १०- मकर ११- कुम्भ १२- मीन .
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..... २७ नक्षत्र -
 १- अश्विनी २- भरणी ३- कृत्तिका ४-रोहिणी ५- मृगशिरा ६- आर्द्रा ७ - पुनर्वसु ८- पुष्य ९ - आश्लेषा १० - मघा ११- पूर्वाफाल्गुनी १२ -उत्तराफाल्गुनी १३ - हस्त १४- चित्रा १५- स्वाती १६ - विशाखा १७ - अनुराधा १८- ज्येष्ठा १९- मूल २०- पूर्वाषाढा २१- उत्तराषाढा २२- श्रवण २३- धनिष्ठा २४ - शतभिषा २५- पूर्वाभाद्रपद २६- उत्तराभाद्रपद २७- रेवती .
....२८ वाँ - अभिजीत होता है लेकिन मुख्य गणना में २७ ही आते है ..अभिजीत का मान उत्तराषाढा नक्षत्र के चौथे चरण से लेकर श्रवण के पहले १५ वें भाग तक रहता है .
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....आप सभी लोग ग्रह , नक्षत्र , राशि, को क्रमश: याद कर ले..इतना ध्यान रहे कि इन्हें अपनी उँगलियों के पोरों पर गिन कर याद करे तो बेहतर होगा ..
..... १ उंगली = ३ पोर , ४ उंगली = १२ पोर . और २७ पोर = एक भचक्र या २७ नक्षत्र ..
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१- अश्विनी ( कनिष्ठिका १ पोर)
२- भरणी ( कनिष्ठिका २ पोर)
३- कृत्तिका ( कनिष्ठिका ३ पोर)
४-रोहिणी ( अनामिका १ पोर)
५- मृगशिरा ( अनामिका २ पोर)
६- आर्द्रा ( अनामिका ३ पोर)
७ - पुनर्वसु ( मध्यमा १ पोर)
८- पुष्य ( मध्यमा २ पोर)
९ - आश्लेषा ( मध्यमा ३ पोर)
१० - मघा ( तर्जनी १ पोर)
११- पूर्वाफाल्गुनी ( तर्जनी २ पोर)
१२ -उत्तराफाल्गुनी ( तर्जनी ३ पोर)
१३ - हस्त ( कनिष्ठिका १ पोर)
१४- चित्रा ( कनिष्ठिका २ पोर)
१५- स्वाती ( कनिष्ठिका ३ पोर)
१६ - विशाखा ( अनामिका १ पोर)
१७ - अनुराधा ( अनामिका २ पोर)
१८- ज्येष्ठा ( अनामिका ३ पोर)
१९- मूल ( मध्यमा १ पोर)
२०- पूर्वाषाढा ( मध्यमा २ पोर)
२१- उत्तराषाढा ( मध्यमा ३ पोर)
२२- श्रवण ( तर्जनी १ पोर)
२३- धनिष्ठा ( तर्जनी २ पोर)
२४ - शतभिषा ( तर्जनी ३ पोर)
२५- पूर्वाभाद्रपद ( कनिष्ठिका १ पोर)
२६- उत्तराभाद्रपद ( कनिष्ठिका २ पोर)
२७- रेवती ( कनिष्ठिका ३ पोर) .
...नोट - इस प्रकार याद करें ......

Thursday, June 20, 2013

भू पृष्ठ श्री चक्र गृहस्थों के लिए.


           भू पृष्ठ श्री चक्र में स्थिति क्रम से पूजन गृहस्थों के लिए सर्वोत्तम है . श्री यंत्र को पुरश्चरण एवं  इसका दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन , और मार्जन का दशांश कुमारिका भोज कर लेने के पश्चात ,  स्वर्ण पत्र में आजीवन , रजत ( चांदी ) पत्र में ११ वर्ष ताम्र पत्र में २  वर्ष ,  तथा भोज पत्र में ६ माह तक तक इसका प्रभाव  दृष्टिगोचर होता है . श्री विद्यार्णव के अनुसार श्री चक्र यदि स्फटिक पर निर्मित हो तो उपरोक्त विधान करने के बाद सदैव पूजन के योग्य है .

श्री यंत्र रहस्य

श्री यंत्र  पर  शोध पूर्ण विवेचन   
           ' श्री चक्रं शिवयोर्वपु ' , अर्थात श्री यंत्र शिव - शिवा का विग्रह है . ' एका ज्योतिर्भूद द्विधा... ' अर्थात सृष्टि के आरम्भ में अद्वैत प्रकाशस्वरूप एक ज्योति ही दो रूपों में परिणत हुई . जिसके परिणामस्वरूप यह जगत ' जनक जननी मज्ज्गदिदम ....' माता - पिता , शिव -शक्ति के रूप में परिणत हुआ , तत्पश्चात इस जगत का स्वेच्छा से निर्माण करने के लिए उस परम शक्ति में स्फुरण हुआ और सर्व प्रथम " श्री यंत्र " का आविर्भाव हुआ.
          इस चक्र का उद्धार इस प्रकार है -
          बिंदु त्रिकोण वसु कोण  दशारयुग्मं , 
          मन्वस्स्र नागदल संयुत षोडशारम  |
         वृत्तत्रयं च धरणीम् सदनत्रयं   च , 
         श्री चक्रमेवमुदितं पर देवताया:  ||
      श्री चक्र के पूजन में २ आचार प्रसिद्ध हैं , १- समयाचार , २- कौलाचार . इसके विषय में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित ' सौंदर्य लहरी ' की लक्ष्मीधरी टीका में लिखा गया है कि , समयाचार आन्तरिक पूजा ( साधना ) है और कौलाचार बाह्य पूजा  है . 
          श्री चक्र को ' आकाश चक्र ' भी कहते हैं . आकाश के २ भेद हैं , १- दहराकाश तथा २- बाह्याकाश . 
        अत: बाह्याकाश पूजन में , भोज पत्र , स्वर्ण पत्र , रजत पत्र , ताम्र पत्र , स्फटिक आदि पर श्री यंत्र का निर्माण करके उसका पूजन किया जाता है यही कौल पूजन है .
          दहराकाश में हृद व्योम में ही श्री चक्र का पूजन ( साधना ) होता है . यही समयाचार है.
          समयाचार में त्रिकोण ऊर्ध्व मुख होता है , और कौल चक्र में त्रिकोण के मध्य में बिंदु होता है. कौल चक्र में ९ त्रिकोण होते है . इसके बाद दोनों मतों में समानता है , अर्थात ९ त्रिकोण के बाद , अष्ट दल पद्म , षोडश दल पद्म, तथा तीन में रचनाओं और चतुर्द्वार युक्त भूपुर त्रय होता है. यही श्री चक्र का उद्धार है. 
          समयाचार में सदाख्य तत्व की पूजा सहस्त्र दल कमल में ही होती है . बाह्य पीठादि  में नहीं होती . समय मत के अनुयायी योगीश्वर जीवन्मुक्त होकर आत्मलीन हो जाते है . समय मत में पुरश्चरण जप एवं होम आदि की आवश्यकता नहीं होती . समय मत की साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व किसी योग्य साधक ( गुरु ) की शरण ( दीक्षा ) लेना अनिवार्य है . जबकि कौल मत में पुरश्चरण एवं  इसका दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन , और मार्जन का दशांश कुमारिका भोज कर लेने से लाभ होता है .
          श्री विद्यार्णव के अनुसार श्री चक्र निर्माण के ३ प्रकार है . १- मेरु ( कूर्म  ) पृष्ठ , २- कैलाश पृष्ठ ( सुमेरु ) , ३- भू पृष्ठ . मेरु पृष्ठ श्री चक्र में संहार क्रम से पूजन नहीं किया जाता है , केवल सृष्टि क्रम से ही पूजन होता है . संहार पूजन  कैलाश पृष्ठ में उत्तम होता है . भू पृष्ठ में स्थिति क्रम से पूजन किया जाता है. 
          भू पृष्ठ में स्थिति क्रम से पूजन गृहस्थों के लिए सर्वोत्तम है . कैलाश पृष्ठ में संहार पूजन क्रम से पूजन सन्यासियों के लिए , तथा कूर्म पृष्ठ में सृष्टि क्रम से पूजन ब्रह्मचारियों और स्त्रियों के लिए उत्तम माना गया है .
          रत्न सागर के अनुसार श्री यंत्र को पुरश्चरण एवं  इसका दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन , और मार्जन का दशांश कुमारिका भोज कर लेने के पश्चात ,  स्वर्ण पत्र में आजीवन , रजत ( चांदी ) पत्र में ११ वर्ष ताम्र पत्र में २  वर्ष ,  तथा भोज पत्र में ६ माह तक तक इसका प्रभाव  दृष्टिगोचर होता है . श्री विद्यार्णव के अनुसार श्री चक्र यदि स्फटिक पर निर्मित हो तो उपरोक्त विधान करने के बाद सदैव पूजन के योग्य है .
 
 
      .

चेप्टर-000001- ज्योतिष शास्त्र की प्रारम्भिक बाते

.....यहाँ पर ज्योतिष शास्त्र की प्रारम्भिक बाते लिखी जा रही है . आकाश की ओर दृष्टि डालते ही मानव मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि यह ग्रह , नक्षत्र , क्या है, तारे टूट कर क्यों गिरते है . सूर्य प्रतिदिन पूर्व में ही क्यों उदय होता है . मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह जानना चाहता है कि ' क्यों ? कैसे ? क्या हो रहा है ? क्या होगा ? मानव केवल प्रत्यक्ष बातों को जान कर ही संतुष्ट होता बल्कि जिन बातों से प्रत्यक्ष लाभ होने की संभावना नहीं है , उनको जानने के लिए भी उत्सुक रहता है .
..... मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि, मानव की इसी जिज्ञासा ने उसे ज्योतिष शास्त्र के गंभीर रहस्य का उदघाटन करने के लिए प्रेरित किया .
..... ज्योतिष शास्त्र की व्युतपत्ति " ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रं "... अर्थात , सूर्यादि ग्रह और काल का बोध करने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है . इसमें प्रधानत: ग्रह, नक्षत्र , धूमकेतु , आदि ज्योति: पदार्थों का स्वरुप , संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति आदि समस्त घटनाओं का निरूपण एवं इनके संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है.
..... भारतीय ज्योतिष की परिभाषा - भारतीय ज्योतिष की परिभाषा के स्कंध त्रय - १- सिद्धांत, २- होरा , ३- संहिता बाद में शोधोपरांत स्कंध पञ्च- सिद्धांत , होरा, संहिता, प्रश्न और शकुन यह पांच अंग माने गए है .
..... यदि विराट रूप में लिया जाय तो विज्ञान का १- मनोविज्ञान २- जीव विज्ञान ३- पदार्थ ( भौतिक ) विज्ञान , ४- रसायन विज्ञान , ५- चिकित्सा विज्ञान भी इसी के अंतर्भूत है.
.....मनुष्य स्वभाव से ही अन्वेषक प्राणी है , वह सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के साथ अपने जीवन का तादात्म्य स्थापित करना चाहता है , उसकी इसी प्रवृत्ति ने ज्योतिष के साथ जीवन का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया और बाध्य किया .
.....समस्त भारतीय ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शन शास्त्र है यही कारण है कि भारत अन्य प्रकार के ज्ञान को दार्शनिक मापदंड द्वारा मापता है . भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है , इसका कभी नाश नहीं होता , आत्मा केवल कर्मों के अनादि प्रवाह के कारण पर्यायों को बदला करता है .
.....अध्यात्मशास्त्र के अनुसार दृश्य सृष्टि केवल नाम रूप या कर्म रूप ही नहीं है , इस नाम रूपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी , स्वतंत्र और अविनाशी आत्मतत्व है , और प्राणीमात्र के शरीर में रहने वाला यह तत्व नित्य एवं चैतन्य है , केवल कर्म-बंध के कारण वह परतंत्र और विनाशशील दिखाई देता है .
.....वैदिक दर्शन में कर्म के , १- संचित ,२- प्रारब्ध और ३- क्रियमाण यह तीन भेद माने गए हैं . किसी के द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म है , ( चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्म में ) वह सब संचित कहा जाता है . अनेक जन्म जन्मान्तरों के संचित कर्मों को एक साथ भोगना संभव नहीं है , क्योंकि इनसे मिलने वाले फल परस्पर विरोधी होते हैं. अत: इन्हें एक के बाद एक भोगना पडता है . संचित में से जितने कर्मों का फल पहले भोगा जाता है उसे ही प्रारब्ध कहते हैं. यहाँ इतना ध्यान रखें कि , समस्त संचित का नाम प्रारब्ध नहीं है , बल्कि जितने भाग का भोग शुरू हो गया है वह प्रारब्ध है .जो कर्म अभी (वर्तमान ) किया जा रहा है, वह क्रियमाण है .इस प्रकार इन तीन तरह के कर्मों के कारण आत्मा अनेक जन्मों - पर्यायों को धारण कर संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है .
.....आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म-प्रवाह के कारण " लिंग शरीर + कार्मण शरीर और भौतिक स्थूल शरीर का सम्बन्ध है. जब एक स्थान से आत्मा भौतिक शरीर का त्याग करता है तब लिंग शरीर, आत्मा को अन्य स्थूल शरीर की प्राप्ति में सहायक होता है. स्थूल भौतिक शरीर में यह विशेषता है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की स्मृति को खो देता है . इसीलिये हमारे ऋषियों ने प्राकृतिक ज्योतिष के आधार पर कहा है कि , आत्मा मनुष्य के वर्तमान शरीर में रहते हुए भी एक से अधिक जगत के साथ सम्बन्ध रखता है . मनुष्य का भौतिक शरीर मुख्य रूप से , १- ज्योति: ,२- मानसिक ,३- पौद्गलिक ( पौदगलिक) , इन तीन उप शरीरों में विभक्त है . इसमें से ज्योति: नामक उप शरीर एस्ट्रालस बाडी ( Astrals Body) द्वारा नाक्षत्र जगत से , मानसिक उप शरीर द्वारा मानसिक जगत से और पौद्गलिक उप शरीर द्वारा भौतिक जगत से संबद्ध है . अत: मनुष्य प्रत्येक जगत से प्रभावित होता है . मनुष्य अपने भाव , विचार और क्रिया द्वारा प्रत्येक जगत को प्रभावित करता है . मनुष्य के वर्तमान शरीर में ज्ञान , दर्शन , सुख , दुःख , वीर्य आदि अनेक शक्तियों का धारक आत्मा सर्वत्र व्यापक है , तथा शरीर प्रमाण रहने पर भी अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा विभिन्न जगतों में अपना कार्य करता है . हमारे ऋषियों ने व आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा की इस क्रिया की विशेषता के कारण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य और आतंरिक दो भागों में विभक्त किया है .
.....( १ ) बाह्य व्यक्तित्व - वह है जिसने इस भौतिक शरीर के रूप में अवतार लिया है . यह आत्मा की चैतन्य क्रिया की विशेषता के कारण अपने पूर्व जन्म के निश्चित प्रकार के विचार , भाव और क्रियाओं की ओर झुकाव रखता है तथा इस जीवन के अनुभवों के द्वारा इस व्यक्तित्व के विकास में वृद्धि होती है और धीरे धीरे विकसित होकर आंतरिक व्यक्तित्व में मिलने का प्रयास करता है .
.....( २ ) आतंरिक व्यक्तित्व - वह है जो अनेकों बाह्य व्यक्तित्वों की स्मृतियों , अनुभवों और प्रवृत्तियों का संश्लेषण अपने अंदर रखता है .
..... बाह्य और आतंरिक व्यक्तित्व इन दोनों व्यक्तित्व संबंधी चेतना के , ज्योतिष में तीन रूप माने गए हैं. बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप , आतंरिक व्यक्तित्व के इन तीन रूपों से संबद्ध हैं , परन्तु आतंरिक व्यक्तित्व के ये तीन रूप अपनी निजी विशेषता और शक्ति रखते हैं, जिसके कारण मनुष्य के भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक इन तीनों जगतों का संचालन होता है . मनुष्य का अंत:करण इन दोनों व्यक्तित्वों के उपरोक्त तीनों रूपों को मिलाने का कार्य करता है . दूसरे दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि , ये तीनों रूप एक मौलिक अवस्था में आकर्षण और विकर्षण की प्रवृत्ति द्वारा अंत:करण की सहायता से संतुलित रूप को प्राप्त होते हैं. तात्पर्य यह है कि आकर्षण की प्रवृत्ति बाह्य व्यक्तित्व को और विकर्षण की प्रवृत्ति आतंरिक व्यक्तित्व को प्रभावित करती है , और इन दोनों के बीच में रहने वाला अंत:करण इन्हें संतुलन प्रदान करता है . मनुष्य की उन्नति और अवनति इन्हीं दोनों के संतुलन के पलड़े पर ही निर्भर है . .....मानव जीवन के बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप , और आतंरिक व्यक्तित्व के तीन रूप , तथा एक अंत:करण , इन सात के प्रतीक सौर जगत के सात ग्रह माने गए हैं . उपरोक्त सात रूप सभी प्राणियों के एक जैसे नहीं होते हैं, क्योंकि जन्म - जन्मान्तरों के संचित और प्रारब्ध कर्म विभिन्न प्रकार के हैं , अत: प्रतीक रूप ग्रह अपने अपने प्रतिरूप के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की स्थितियाँ प्रकट करते हैं.
..... आधुनिक वैज्ञानिक प्रत्येक वस्तु की आतंरिक रचना सौर-मंडल से मिलती जुलती बताते हैं. उन्होंने परमाणु के सम्बन्ध में अन्वेषण करके बताया है कि , प्रत्येक पदार्थ की सूक्ष्म रचना का आधार परमाणु है . इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि परमाणु की ईंटों को जोड़कर पदार्थ का विशाल महल निष्पन्न होता है, और यह परमाणु सौर जगत के सामान आकार प्रकार वाला है . इसके मध्य में एक धन ( + ) विद्युत का बिंदु है , जिसे केंद्र कहते हैं .इसका व्यास एक इंच के १० लाखवें भाग का भी १० लाखवाँ भाग बताया गया है . परमाणु के जीवन का सार इसी केंद्र में बसता है . इसी केंद्र के चारों ओर अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विद्युत कण चक्कर लगाते रहते हैं , और यह केंद्र वाले धन ( + ) विद्युत कण के साथ मिलने का उपक्रम करते रहते हैं . इस प्रकार के अनंत परमाणुओं के समाहार का एकत्र स्वरुप हमारा शरीर है .
..... भारतीय दर्शन में भी " यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे " का सिद्धांत प्राचीन काल से ही प्रचलित है . कुल मिला कर तात्पर्य है कि , वास्तविक सौर जगत में सूर्य , चंद्र , आदि ग्रहों के भ्रमण करने में जो नियम काम करते हैं , वही नियम प्राणीमात्र के शरीर में स्थित सौर जगत के ग्रहों के भ्रमण करने में भी काम करते हैं . अत: आकाश स्थित ग्रह , शरीर स्थित ग्रहों के प्रतीक हैं. 

Wednesday, June 19, 2013

" मननात् त्रायते इति मन्त्र: "

" मननात् त्रायते इति मन्त्र: " , जिसके मनन से दैहिक , दैविक , और भौतिक त्रय तापों से रक्षा होती है उसे मन्त्र कहते हैं. मन्त्र वांग्मय को ४ भागों में १- वैदिक , २- पौराणिक , ३- आगमशास्त्रीय ( तांत्रिक ) ४- शाबर विभक्त किया गया है.... इसके अतिरिक्त इनके ३ भेद हैं ..१- बीज मन्त्र ,२- मन्त्र , ३- माला मंत्र ( माला मन्त्र जैसे प्रत्यंगिरा ) .... मन्त्र योग संहिता के अनुसार १- गुरु बीज ,,२ - शक्ति बीज , ३ - रमा बीज , ४ - काम बीज , ५ - तेज बीज ,६ -योग बीज , ७- शक्ति बीज , ८- रक्षा बीज ..... तांत्रिक मन्त्रों में ५१ वर्ण लिए गए है . इसी आधार पर ५१ शक्तिपीठ भी हैं. मन्त्रों में विशेष रूप से ६ बातों पर महत्व दिया गया है . १- छंद , २- ऋषि , ३- देवता , ४- बीज , ५- कीलक , ६- शक्ति ...मंत्र के इन ६ रहस्यों को ध्यान में रख कर ही किसी मन्त्र की साधना में प्रवृत्त होना चाहिए . इसके अतिरिक्त नपुंसक मन्त्र आदि भी कई भेद है .

मानव जीवन के लिए ज्योतिष आवश्यक क्यों ?

मानव जीवन और ज्योतिष का अभिन्न सम्बन्ध है , ज्योतिष विज्ञान का एकमात्र लक्ष्य मानव की आत्मा का विकास करके , उसे परम तत्व में निहित कर देना , या दूसरे शब्दों , मानव को दैहिक , दैविक , भौतिक इन त्रय तापों से रक्षित करना . दर्शन , सांख्य , विज्ञान आदि सभी का एक मात्र ध्येय विश्व की गूढ़ पहेली को सुलझाना एवं मानव जीवन को सामर्थ्यवान व सुखमय बनाना है...ज्योतिष भी विज्ञान होने के कारण इस अखिल ब्रह्माण्ड के रहस्य को उजागर करने का प्रयत्न करता है ...मनुष्य का वर्तमान जीवन उसके पूर्व संकल्पों , कामनाओं और कृत्यों का परिणाम है . तथा इस जीवन में वह जैसे कृत्य आदि करता है उसे वैसा ही परिणाम मिलता है ...पूर्ण प्राणमय, मनोमय, प्रकाशरूप , एवं समस्त कामनाओं और विषयों के अधिष्ठान भूत ब्रह्म का साक्षात ज्योतिष विज्ञान के सहयोग से शीघ्र मिलता है ... संक्षिप्त में इसलिए ज्योतिष मानव जीवन के लिए आवश्यक है.....